डॉ. शाह आलम राना, एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN
लखनऊ: एक दूसरे से आगे निकलने की आपाधापी, स्वार्थ और आत्मकेंद्रित होती जा रही इस दुनिया में किसी भी जन नायक को भुला देने के लिए डेढ़ सौ वर्ष कम नहीं होते। जब हमारे ही लोग उस गौरवशाली विरासत की शानदार धरोहर को सहेज कर न रख पा रहे हो तो सत्ता को कोसने का क्या मतलब? दरअसल इतिहासकी भी दो किस्में हैं। एक तो राजा, रजवाड़ों, रियासतों, ताल्लुकेदारों, नवाबों, बादशाहों, शहंशाहों का, तो दूसरा जनता का। सत्ता का चरित्र इस तरह का होता है कि वह अपने फरेब,साजिशों और दमन के सहारे हमें बार-बार आभास कराती चलती है कि जनता बुजदिल और कायर होती है और उसके बलिदानों का कभी कोई इतिहास नहीं लिखा जाता। जनसाधारण भी जाने-अनजाने ऐसी साजिशों का हिस्सा बन जाते हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर हम सबकुछ भूलने पर ही उतारू हो जाएं तो भला याद क्या और किसे रखेंगे?
जंग-ए-आजादी के सबसे काबिल पैरोकार एक सूफी-फकीर को माना जाता है। अरकोट (मद्रास) में चीनापट्टम के नवाब गुलाम हुसैन खां के लाड़ले पुत्र मौलवी अहमद उल्लाह शाह का जन्म 1797 में हुआ था। जिन्हें उनके पिता ने अरबी-फारसी के साथ अंग्रेजी भाषा की तालीम के अलावा सैन्य प्रशिक्षण में भी महारत दिलवाई। लिहाजा सोलह वर्ष की उम्र में हैदराबाद के निजाम ने उन्हें आदरपूर्वक अपने यहां आमंत्रित किया। अहमदुल्लाह शाह की वंशावली दक्षिण के प्रसिद्ध कुली कुतुबशाही शासक परिवार से मिलती है। पर्यटन में रुचि होने के कारण हैदराबाद ही से यूरोप की यात्रा पर निकल गए, अरब भी गए। अनेक देशों की यात्रा के उपरांत लंदन पहुंचे। जहां महारानी विक्टोरिया के मेहमान रहे। तब तक 1857 आरंभ नहीं हुआ था। देश वापसी के उपरांत वे आगरा, जयपुर, ग्वालियर इत्यादि के प्रतिष्ठित सूफी-बुजुर्गों के संपर्क में आए। जयपुर के संत हजरत फरमान इलाही ने उन्हें अहमद उल्लाह शाह नाम अता फरमाया तो ग्वालियर के संत मेहराब अली शाह ने उन्हें फिरंगी सरकार की ज्यादातियों के खिलाफ अवाम की सूखी रगों में आजादी का लहू दौड़ाने का वचन लिया।
गौरतलब है कि देश में जब आजादी की कहीं कोई खास चर्चा भी नहीं थी तब उन्होंने फिरंगियों की बर्बरता के विरुद्ध पर्चे लिखे,रिसाले निकाले और देश में घूम-घूम कर अपने तरीके से लोगों को संगठित किया। वे मौलवी हाफिज अहमद उल्लाह शाह, सिकंदर शाह, नक्कार शाह, डंका शाह आदि नामों से मशहूर थे। जैसे उनके कई नाम थे ठीक वैसे ही उनकी शख्सियत के कई आयाम भी। वे ऐसे ही एक जुझारू जीवट महानायकथे। उनकी विरासत पर हमें नाज होना चाहिए।
1857 की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि इसमें अंग्रेजो की ‘डिवाइड एंड रुल’ नीति को धता बता कर हिन्दू-मुसलमान कदम से कदम मिलाकर साथ-साथ मिलकर गुलामी की बेड़ियां काट रहे थे। हर मोर्चे पर हालात यह थे कि इंच-इंच भर जमीन अंग्रेजों को गवाना पड़ा या देशवासियों के लाशों के ऊपर से गुजरना पड़ा। सवाल उठता है कि फिर हम हार क्यों गए?वजह साफ है कि ऐसे नाजुक दौर में हवा का रुख देखकर आजादी में शामिल हुए नायक ‘खलनायक’ बन गए और ऐन मौके पर अपनी गद्दारी की कीमत वसूलने दुश्मनों से जा मिले। इसी विश्वासघात की वजह से जंग-ए-आजादी के सबसे बहादुर सिपहसालार मौलवी को शहादत देनी पड़ी। 1857 का सबसे बड़ा सबक यह है कि ‘आप बिकेंगे तो हर मोर्चे पर हारेंगे।’
मौलवी को कलम और तलवार में महारत होने के साथ ही आम जनता के बीच बेहद लोकप्रियता थी। इस महायोद्धा ने 1857 की शौर्य गाथा की ऐसी इबारत लिखी जिसको आजतक कोई छू भी नहीं पाया। पूरे अवध में नवंबर 1856 से घूम-घूमकर इस विद्रोही ने आजादी की मशाल को जलाए रखा। जिसकी वजह से फरवरी 1857 में उनके सशस्त्र जमावड़े की बढ़ती ताकत देखकर फिरंगियों ने कई लालच दिए,अपने लोगों से हथियार डलवा देने के लिए कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। इस गुस्ताखी में फिरंगी आकाओं ने उनकी गिरफ्तारी का फरमान जारी कर दिया। लेकिन मौलवी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अवध की पुलिस ने मौलवी को गिरफ्तार करने से साफ मना कर दिया। 19 फरवरी, 1857 को अंग्रेजी फौजों और मौलवी के साथियों में कड़ी टक्कर हुई। आखिरकार उन्हें पकड़ लिया गया। बागियों का मनोबल तोड़ने के लिए घायल मौलवी को सिर से पांव तक जंजीरों में बांधकर पूरे फैजाबाद शहर में घुमाया ही नहीं गया, बल्कि फांसी की सजा सुनाकर फैजाबाद जेल में डाल दिया गया।
क्रांतिबीज का पौधा जो उन्होंने रोपा था उसका असर यह हुआ कि 8 जून, 1857 को फैजाबाद की बहादुर जनता ने बगावत कर दी। हजारों-हजार की तादाद में बागियों ने फैजाबाद जेल का फाटक तोड़कर अपने प्रिय मौलवी और साथियों को आजाद कराया। पूरे फैजाबाद से अंग्रेज डरकर भाग खड़े हुए। फैजाबाद आजाद हो गया। मौलवी की रिहाई का जश्न मनाया गया और उन्हें इक्कीस तोपों की सलामी दी गयी। फिर तो मौलवी ने सिर्फ फैजाबाद तक ही अपने आप को सीमित नहीं रखा बल्कि पूरे अवध-आगरामें जमकर अपनी युद्धनीति का करिश्मा दिखाया। फरारी के दिनों में मौलवी को सुनने हजारों की भीड़ जमा हो जाया करती थी। प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के लेखक सुंदरलाल लिखते हैं कि ‘वास्तव में बगावत की उतनी तैयारी कहीं भी नहीं थी, जितनी अवध में। हजारों मौलवी और हजारों पंडित एक-एक बैरक और एक-एक गांव में स्वाधीनता युद्ध के लिए लोगों को तैयार करते फिरते थे।‘ इतिहासकार जनरल होम्ज ने उत्तर भारत में अंग्रेजों का सबसे जबदस्त दुश्मन मौलवी को बताया है। होम्ज ने लिखा कि ‘उन्होंने दो मर्तबा कमांडर-इन-चीफ कालिन कैम्पवेल को मैंदान-ए-जंग में शर्मनाक पराजय दी। उसके जबरदस्त फौजी मंसूबों को खाक में मिला दिया।’
जनरल सर थामसन सीटन, कर्नल मैलसन इत्यादि ने असाधारण साहसी बताते हुए उन्हें ही महाविद्रोह का प्रमुख श्रेय दिया- ‘मौलवी अहमद उल्लाह शाह अदम्य साहसी और कठोर दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे। वे विद्रोहियों में सर्वश्रेष्ठ थे। मेरे विचार से इसमें कोई संदेह नहीं कि ये व्यक्ति ही पूरे षड़यत्र (महाविद्रोह) का दिमाग और हाथ था।’
कार्ल मार्क्स ने भी उस समय की सैन्य घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए मौलवी अहमदुल्लाह शाह का उल्लेख किया है। उनकी शहादत पर अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने एक स्वर में इसे अपने सबसे बड़े दुश्मन का समाप्त हो जाना बताया था।
हैवलाक ने भी लिखा कि अवध के मार्चे पर उन जैसा कोई दूसरा वीर नहीं था। राजामान सिंह को फैजाबाद की जिम्मेदारी सौंप कर वहां से लखनऊ कूच का उनका फैसला इतिहास के एक नए और कहीं अधिक शौर्यपूर्ण अध्याय की रचना करने जा रहा था। 30 जून,1857 को चिनहट का भीषण युद्ध साधन सम्पन्नता व कुटिलता पर साधनहीनता तथा सच्चे संकल्पों की जीत का जश्न था। उनके साहसिक प्रदर्शन के कारण ही अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने अपनी रिपोर्टो में उनका बिजली की गति से लड़ने वाले योद्धा के रूप में उल्लेख किया है।
अंग्रेजों का आधिकारिक इतिहास लिखने वाले केमालीसन ने लिखा कि‘मौलवी एक असाधारण आदमी थे। विद्रोह के दौरान उसकी सैन्य क्षमता और रणकौशल का सबूत बार-बार मिलता है। उनके सिवा कोई और यह दावा नहीं कर सकता कि उसने युद्धक्षेत्र में कैंपबेल जैसे जंग में माहिर उस्ताद को दो-दो बार हराया। न जाने कितनी बार गफलत में डाला और उनके हमले को नाकाम किया। वह अपने देश के लिए जंग लड़ता है, तो कहना पड़ेगा कि मौलवी एक सच्चा राष्ट्रभक्त था। न तो उसने किसी की कपटपूर्ण हत्या करायी और न निर्दोषों और निहत्थों की हत्या कर अपनी तलवार को कलंकित किया। बल्कि पूरी बहादुरी,आन-बान-शान से फिरंगियों से लड़ाजिन्होंने उसका मुल्क छीन लिया था।’
हालात ऐसे थे कि हर मोर्चे पर फिरंगियों को भागना पड़ रहा था। तब 12 अप्रैल, 1858 को गवर्नर जनरल कैंनिंग ने उन्हें गिरफ्तार करने वाले को पचास हजार रुपए ईनाम देने का ऐलान किया। जिस पर भारत के सचिव जीएफ एडमोस्टन के दस्तखत थे। इधर मौलवी से पुवायां का राजा जगन्नाथ अपनी दोस्ती का दम भरता था। मौलवी ने सोचा कि एक बार फिर से सभी बिखरे बागियों की मदद से अंग्रेजों को देश से खदेड़ा जाए। लिहाजा राजा से मदद मांगने जब पुवाया पहुंचेतो उन्हें दाल में कुछ काला लगा। लेकिन, इस वीर नायक ने वापस लौटना अपनी शान के खिलाफ समझा। पैसों और रियासत के लालच में धोखे से मौलवी को शहीद कर दिया गया। यह 15 जून, 1858 की मनहूस तारीख थी। उस महान क्रांतिकारी के सिर को काटकर अंग्रेज जिला कलेक्टर को राजा ने सौंपा और मुंह माँगी रकमवसूल की। इस विश्वासघात से देश के लोग रो पड़े। फिरंगियों ने अवाम में दहशत फैलाने की नीयत से मौलवी का सिर पूरे शहर में घुमाया और शाहजहांपुर की कोतवाली के सामने नीम के पेड़ पर लटका दिया। यह दीगर बात है कि लोधीपुर के नजदीक रसूलपुर जहानगंज के कुछ जुनूनी नौजवानों ने 18 जून, 1858 की रात में शहीद के सिर को उतारकर खेतों के बीच में सम्मान से दफना दिया। अंग्रेजों के प्रकोप के कारण इस गांव वाले पलायन कर गए। यहां आज भी मौलवी का स्मारक मौजूद है। सन 1937 में इसे पक्की कब्र का रूप प्राप्त हुआ।
फैजाबाद के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रमानाथ मेहरोत्रा ने अपनी किताब ‘स्वतंत्रता संग्राम के सौ वर्ष’ में लिखा है कि‘फैजाबाद की धरती का सपूत मौलवी अहमद उल्लाह शाह शाहजहांपुर में शहीद हुआ और उसके खून से उस जनपद की धरती सींची गयी तो बीसवी सदी के तीसरे दशक में शाहजहांपुर की धरती से एक सपूत अशफाक उल्ला खां का पवित्र खून फैजाबाद की धरती पर गिरा। इतिहास का यह विचित्र संयोग है…एक फैजाबाद से जाकर शाहजहांपुर में शहीद हुआ तो दूसरा शाहजहांपुर में जन्मा और फैजाबाद में शहीद हुआ।’शहीद–ए-वतन अशफाक ने अपनी जेल डायरी में एक शेर दर्ज किया है- ‘शहीदों की मजारों पे जुड़ेंगे हर बरस मेले/वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।‘ दिल पर हाथ रहकर आज भारत के लोग अपने आप से खुद पूछे कि इस अजूबे फकीर के वारिसों कोउसकी शहादत पर याद करने की उन्हें कितनी फुर्सत है?इस मुक्ति योद्धा की जिंदगी के ज्यादातर पन्नें अब भी रहस्य के गर्भ में है।
मौलवी अहमदुल्ला शाह के बारे में हमें भी अन्य लोगों की तरह पहले से कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी। सन 1999 में अयोध्या में पढ़ाई के दौरान मेरी मुलाकात फैजाबाद निवासी सत्यनारायण मौर्य और अमानुल्लाह कुरैशी से हुई। इन दोनों बुजुर्गों की जोड़ी ने फैजाबाद में मौलवी अहमदुल्लाह शाह की शहादत को याद रखने की रवायत को जिंदा रखा है। इस सिलसिले में हिस्सेदारी का मुझे एक अच्छा मौका मिला।
सन 2012 में पहली बार शाहजहांपुर में मौलवी अहमदुल्लाह शाह की शहादत दिवस पर जाना हुआ। लेकिन वहां उनकी मजार पर खामोशी पसरी रही। यह देखकर मुझे बहुत हैरानी हुई। मेरे शाहजहांपुर पहुंचने की खबर कुछ मीडियाकर्मियों को पता चली तो करीब आधा दर्जन पत्रकार मिलने आए और बोले कि क्या आप मौलवी के वंशज है? लंबी बातचीत के बाद दूसरे दिन इस अमर योद्धा को दी गयी आदरांजलि प्रमुखता से वहाँ के अखबारों में छापी गई। यहां मजार की देखरेख करने वाले हाफिज अशफाक अली बताते हैं कि इकतालीस साल से यहां खिदमत कर रहा हूं। उन दिनों यहां खेतों के बीच सिर्फ मजार ही थी। बाद में सबके सहयोग से इसका निर्माण हुआ। किसी ने सीमेंट दिया तो दीपचंद बाबू ने ईट दिया। ऊपर जो पीतल की मिनार लगी है वो हमने अपनी तरफ से लगवाया है। बीस साल पहले नगरपालिका चेयरमैन सरोज गुप्ता ने नल लगवाया था। उसके बाद से चेयरमैन और डीएम कार्यालय में कई बार अर्जी दी कि मजार पर बिजली लग जाए। लेकिन आज तक हुआ कुछ भी नहीं। हमारी बहुत ख्वाहिश है कि मजार पर रोशनी आ जाए और यहां भी जगमग हो जाए। हमको आजादी दिलाने वाले महानायक को सलामी करने बहुत सारे लोग आते हैं। राहगीरों को विद्युतीकरण होने से बड़ी आसानी होगी।
सन् 2013 में रिपोर्टिंग से सिलसिले में फिल्म अभिनेता राजपाल यादव के गांव कुंडरा बंडा जाना हुआ। वापसी में पुवाया आया तो मौलवी अहमदुल्लाह शाह के शहादत स्थल को देखने की चाहत हुई। आखिरकार राजा की गढ़ी पर पहुंच गया। जैसे ही मैं गढ़ी की तस्वीर लेने लगा तत्काल ही गढ़ी की देखरेख करने वाला आकर मना करने लगा कि फोटो खींचना मना है। लखनऊ में राजा के वंशज रहते हैं। उनसे अनुमति के बाद ही फोटो खींच सकते हैं। मैंने डांटते हुए कहा कि यह गढ़ी आम आदमी के खून और पसीने से बनी है लिहाजा इसमें लगी एक-एक ईंट पर जनता का हक है। गढ़ी से एक-एक ईंट निकालकर जनता अपने घर लेकर चली जाएगी और यहां बचेगा कुछ नहीं। तब गढ़ी की देखरेख करने वाला और मेरे साथ गए एक साथी दोनों ही घबरा गए। काश मौलवी अहमदुल्लाह शाह सरीखे 1857 के विलक्षण योद्धाओं पर समग्रता में काम हो पाता। उनकी जिंदगी और साहस की कहानी को हम अपने स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाते। कितना प्रेरक होता कि उनका एक गरिमापूर्ण स्मारक भी होता जिससे आने वाली नस्लें अपनी विरासत के कुछ अहम अध्यायों को समझ पाती और उनकी दिखाई राह पर चलती।
आईसीएन इंटरनेशनल मीडिया ग्रुप के पदाधिकारीगण मौलवी अहमदुल्लाह शाह की मजार पर गुलपोशी की।इस कार्यक्रम को कर्नल नीलेश इंगले, प्रोफेसर डॉ. शाह अयाज़ सिद्दीकी, एमएस मजूमदार, शादाब उल्लाह खां, रफी अहमद खान, नूर खान एवं मंजीत सिंह ने संयुक्त रुप से मॉडरेट किया।