“एक ख़्वाब और तुम”

आलोक सिंह, एडिटर-आई.सी.एन.

“मेरी ज़िंदगी एक ख़्वाब से जुड़ी है

और वो ख़्वाब जो तुमसे जुड़ा है

उस ख़्वाब में पहाड़ है

और पहाड़ से निकलती एक नदी

नदी में अपनी मौज में बहता पानी

उस पानी से होकर आती ठंडी हवा

और कल कल बहते पानी की आवाज़

उसी नदी के किनारे एक छोटा सा काठ का घर

जहाँ तुम जब चाहो और जब तक चाहो बैठ सको

पैर डालकर उस नदी के ठंडे पानी मे

और हाँ खिलती रोज़ सुबह की धूप में

अपने हरे भरे गार्डन में बैठेंगे हम तुम

साथ हो एक गरम चाय की प्याली और ,

और सिर्फ तुम और तुम्हारी बातें

अच्छा सुनो पता है,

मैंने घर में कही कोने नहीं छोड़े हैं

क्यों?

अरे क्योंकि कोनो में अक्सर

धूल और अंधेरा चुपचाप आकर

दिन में भी बैठ जाते हैं और न ध्यान दो

तो वहीँ जम जाते हैं,

फिर न अंधेरा जाता है और न धूल

इसलिए सिर्फ उजालों की जगह छोड़ी है

और सुनो जिधर भी रुख करोगे तुम

ताज़ी हवा ही मिलेगी तुम्हे

तुम्हे क्लोस्टोफोबिया है ना !!!

इसलिए घर में घुटन के लिए जगह नही रखी

खुली हवा खुला घर खुले और

आज़ाद उड़ते ख्याल बस

नमालोम क्यों लेकिन बरबस ही किशोर के एक गीत की याद आ गयी

“छोटा सा घर होगा बादलों की छांव में, आशा दीवाने मन में बनसुरी बजाये,

हम ही हम चमकेंगे तारों के उस गांव में

आँखों की रौशनी हरदम ये समझाए”

बस इतना सा ही तो है कि…

मेरी ज़िंदगी एक ख़्वाब से जुड़ी है

और वो ख़्वाब जो तुमसे जुड़ा।”

                         

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