उम्मीद जगाते नतीजे

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की बारहवीं परीक्षा के परिणाम नई उम्मीद व उत्साह जगाने वाले हैं। खासकर इस मायनों में भी लड़कियां न केवल शीर्ष पर रही बल्कि उनका पास होने का कुल प्रतिशत भी लड़कों के मुकाबले कहीं ज्यादा है।
इस परिणाम को सामाजिक बदलाव की आहट के रूप में देखा जाना चाहिए। साथ ही इस अंतर की वजह भी तलाशी जानी चाहिए। जाहिर है यह आंकड़ा  आगे उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश व प्रतियोगी परीक्षाओं के अलावा नौकरियों में फर्क उत्पन्न करेगा। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि शीर्ष पर भी दो लड़कियां ही हैं और उन्होंने पांच सौ से सिर्फ एक अंक कम हासिल किया तथा साथ ही 498 अंकों के साथ दूसरी रैंकिग भी लड़की ने ही हासिल की। कुल मिलाकर लड़कियों ने परीक्षा में लड़कों के मुकाबले 9 प्रतिशत बेहतर प्रदर्शन किया। परीक्षार्थी भी पिछले साल के मुकाबले एक लाख अधिक रहे। इन परीक्षा परिणामों का एक उत्साहवर्धक पक्ष यह भी है कि केंद्रीय विद्यालय का परीक्षा परिणाम सबसे बेहतर रहा और इसके 95.5 फीसदी विद्यार्थी परीक्षा में सफल रहे। दूसरे नंबर पर पिछड़े इलाकों के गरीब प्रतिभावान बच्चों के लिए खोले गये नवोदय विद्यालयों का परीक्षाफल रहा। यह सुखद संकेत है कि देश के दूरदराज के पिछड़े इलाकों में शिक्षा के प्रति गंभीरता व जुनून बढ़ रहा है। निजी स्कूलों का तीसरे नंबर पर आना भी यह निष्कर्ष देता है कि खर्चीली शिक्षा प्रणाली व बाहरी चमक-दमक बेहतर परीक्षा परिणामों की गारंटी नहीं है।इसी तरह महानगरों के मुकाबले ग्रामीण व छोटे शहरों का परीक्षा परिणाम बेहतर होना भी सुखद संकेत है। लेकिन इसके साथ ही फिर पुराने सवाल सामने आते हैं कि क्या सीबीएसई की परीक्षाओं के मूल्यांकन का पैमाना इतना वैज्ञानिक व प्रामाणिक है कि छात्र पांच सौ में से लगभग पूरे-पूरे अंक हासिल कर लें  एक बार को विज्ञान व गणित में तो यह सोचा जा सकता है कि इन विषयों की पद्धति व प्रश्नों के उत्तर विज्ञानसम्मत होते हैं, जिसमें संभवत: पूरे-पूरे अंक आने की संभावना होती है। मगर साहित्य व मानविकीय के अन्य विषयों में शतप्रतिशत अंक पाना कैसे संभव है  इन विषयों की अभिव्यक्ति में मूल्यांकन के दौरान यह संभव नहीं है कि हर छात्र ने जो उत्तर दिये हों वे मानकों की दृष्टि से उच्चकोटि के हों। दरअसल, सीबीएसई के परीक्षा परिणामों का प्रतिशत उच्चशिक्षा व रोजगारपरक संस्थानों में दाखिले की अंकों की सीमा का निर्धारण करता है। जो दूरदराज के इलाके से आने वाले प्रतिभावान विद्यार्थियों के लिए अन्याय जैसी स्थिति पैदा करता है। दरअसल, राज्यों के बोर्डों का परीक्षाफल की प्रतिशत हमेशा की तरह सीबीएसई के मुकाबले बहुत कम होता है। नि:संदेह इन स्कूलों का स्तर भी बेहतर नहीं होता और शिक्षा व्यवस्था भी तमाम खामियों से जूझ रही है। फिर नंबर देने में ऐसी उदारता नहीं दिखाई जाती जैसे सीबीएसई में उत्तरपुस्तिकाओं को जांचने में दिखाई जाती है, जिसका दंश उन्हें जीवनपर्यंत झेलना पड़ता है। ऐसे में देश के नीति-नियंताओं को इस सवाल पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि देश में शिक्षा पद्धति में यह विसंगति कैसे दूर की जाये।

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