चुनाव नतीजों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलग-अलग मौकों पर जो बातें कही हैं, उनका सार यह है कि एनडीए सरकार-2 की प्राथमिकता भारतीय संविधान की रोशनी में सबको साथ लेकर चलने की है। मोदी ने स्पष्ट कहा कि चुनाव के दौरान चाहे जो भी बातें कही गई हों, उन सबका अब कोई महत्व नहीं है।
बहुमत से सरकार चुनी जरूर जाती है पर चलती वह सर्वमत से है। यानी मोदी अपने विरोधियों को भी साथ लेकर चलना चाहते हैं, भले ही एक तबका इस जनादेश को ‘हिंदू जनादेश’ बताने की कोशिश करे। बीजेपी और एनडीए संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद एनडीए सांसदों को संबोधित करते हुए उन्होंने कुछ नए विचार दिए। पहला यह कि हमें ‘सबका साथ, सबका विकास’ करने के साथ सबका विश्वास भी हासिल करना है। जिन्होंने वोट दिया वे भी हमारे हैं, जिन्होंने वोट नहीं दिया वे भी हमारे हैं।उन्होंने कहा कि ‘कई दशकों तक अल्पसंख्यक समुदाय के मन में बीजेपी के प्रति एक डर का माहौल पैदा करके विरोधी पार्टियों ने उनका उपयोग वोट बैंक की तरह किया है। अब इन पांच वर्षों में हमारा लक्ष्य रहेगा काम के आधार पर, संपर्क के आधार पर हर एक का विश्वास अर्जित करना, उनका दिल जीतना।मोदी ने यह भी कहा कि कांग्रेस और अन्य दलों ने अल्पसंख्यक समुदाय की शिक्षा या बुनियादी सवालों पर कभी काम नहीं किया। सिर्फ डर का माहौल बनाकर उनके वोट लेने का काम किया। इसलिए आने वाले पांच साल में हमारा प्रमुख लक्ष्य उनका विश्वास पाना रहेगा। देश के अभिभावक के तौर पर मोदी ऐसा कह रहे हैं मगर क्या कुछ गुमराह लोगों की समझ भी उनकी सोच के अनुरूप ढल पाएगी? पिछले एक हफ्ते में देश के कई उत्तरी राज्यों में अल्पसंख्यक समुदाय के आम लोगों पर हमले हुए हैं। इन दुखद घटनाओं के लिए किसी राजनीतिक दल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि हमलावरों की कोई राजनीतिक पहचान नहीं पाई गई है। लेकिन इन घटनाओं से जुड़ी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं जरूर चिंताजनक रही हैं। बीजेपी के नवनिर्वाचित सांसद गौतम गंभीर ने प्रधानमंत्री के ही विचारों को आगे बढ़ाते हुए गुरुग्राम में एक अल्पसंख्यक युवक के साथ हुई बदसलूकी पर आपत्ति जताई तो उन्हें ट्रॉलिंग झेलनी पड़ी और अपनी ही पार्टी के लोगों के उलाहने सुनने पड़े। जरूरत यह सोच बदलने की है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल की तरह इस बार भी अगर अल्पसंख्यकों पर हमले और मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएं दोहराई गईं तो देश का बहुत नुकसान होगा। भारत में शांति और सौहार्द बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सेक्युलरिज्म का नारा बुलंद करने वाली तमाम पार्टियां जमीनी तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय के साथ खड़ी हों, जो इधर लगातार खुद को अलग-थलग और असुरक्षित पा रहा है। ठीक है कि चुनावी हार के बाद से ये पार्टियां अंदरूनी उथल-पुथल की शिकार हैं। लेकिन सांगठनिक समस्याओं से निपटने के लिए उनके पास समय ही समय है। अभी उन्हें अपने जनाधार के साथ खड़े होकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए।
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