सत्येन्द्र कुमार सिंह, एडीटर-ICN
26 जनवरी 1950 को भारत का अपना संविधान बना तब यह माना गया कि धीरे-धीरे हिंदी अंग्रेजी का स्थान ले लेगी और अंग्रेजी पर हिन्दी का प्रभुत्व होगा किन्तु कानून के अनेक मूल भावनाओं की तरह यह भी अपना उचित स्थान नहीं प्राप्त कर सका है|
ये प्रश्न बड़ा अटपटा लग सकता है कि देश की सबसे ज्यादा बोले जानी वाली भाषा हिंदी (४१%-जनगणना २००१) भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही नहीं| जी हाँ, यह सच है|
गुजरात उच्च न्यायालय ने सन २०१० में यह स्वीकारते हुए कि हिंदी देश में सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है, अपने निर्णय में यह कहा कानून में कोई ऐसा प्रावधान या आदेश नहीं है जिसमे इसे राष्ट्र-भाषा का दर्ज़ा दिया गया हो| यह फैसला एक जनहित याचिका के संदर्भ में दिया गया था| उसने यह भी कहा कि यह आधिकारिक भाषा तो है किन्तु राष्ट्रभाषा नहीं है|
यहाँ तक कि हाल में हुए कर्नाटक की वह घटनाएँ याद किया जाए जिसमे राष्ट्रीय राजमार्गों पर हिंदी के प्रयोग पर आपत्ति करते हुए लोगों ने प्रदर्शन किया था| इस घटना के ऊपर अपनी बात रखते हुए वैंकया नायडू जी ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि भारतीय संविधान के आर्टिकल ३४३ के क्लॉज़ १ में हिंदी को आधिकारिक भाषा ही कहा गया है| इसी आर्टिकल के क्लॉज़ १७ में अंग्रेजी को भी आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा मिला है| किन्तु हिंदी देश की राष्ट्रीय भाषा नहीं है|
चलिए अब थोडा हिंदी तथा भाषा के बारे में जान लेते हैं| भाषा तो मनुष्य को अपने विचारों को आदान-प्रदान करने में सहयोग करता है किन्तु जो बोल नहीं सकते क्या वह संवाद नहीं करते? मतलब यह कि भाषा एक माध्यम तो है किन्तु लिपिबद्ध या स्वरबद्ध ना भी किया जाए तो भी विचारों का आदान-प्रदान तो किया ही जा सकता है|
जब घर में पहली किलकारी होती है तो हर तरफ ख़ुशी का माहौल होता है| किन्तु ये भाषा की मोहताज नहीं है| फिर धीरे-धीरे सामाजिक चलन के हिसाब से भाषा ज्ञान प्रारम्भ होता है| भारत देश में अनेक राज्य हैं और हर राज्य की अपनी भाषा है जिसमे उसका राज-कार्य किया जाता है| जो जन-संपर्क की भाषा होती है वही अमूमन राष्ट्र-भाषा बनती है| इस देश में हिंदी के बोले जाने का प्रतिशत ५०% से भी कम है यानि आधे से भी कम जनसँख्या इस देश की हिंदी जानती है|
उस पर भी सत्य यह कि हमारा चिंतन आज भी विदेशी है । हम चेष्टा करते हैं कि वार्तालाप करते समय अंग्रेजी का प्रयोग किया जाए और हमें गर्व महसूस हो| यह मानसिकता अजीब है| इसका एक पक्ष यह भी है कि बच्चों के विशुद्ध हिंदी में नाम रखने वाले इस बारे में डिक्शनरी का प्रयोग तो करते हैं किन्तु नाम रखने के अलावा अधिकतर चर्चाएँ तथा सभाएं अंग्रेजी में ही करते हैं| ये भी समझने वाली बात है कि अमेरिका या ब्रिटेन में एक अनपढ़ भी अंग्रेजी ही बोलता है| इसलिए अंग्रेजी ज्ञान का द्योतक नहीं है|
हमें इंतज़ार है उस वक्त का जब इस मानसिकता का परित्याग हो और हिन्दी का प्रयोग करने में हमें गर्व अनुभव हो। चलिए प्रण ले आज विश्व हिंदी दिवस पर कि विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा के उद्गम स्थल यानी कि अपने देश में यथासंभव कार्य हिन्दी में ही करेंगे। निमन्त्रण-पत्र, नामपट्ट आदि हिन्दी में रखेंगे। सरकारी विभाग में कार्य हिन्दी में करेंगे|
26 जनवरी 1950 को भारत का अपना संविधान बना तब यह माना गया कि धीरे-धीरे हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ले लेगी और अंग्रेजी पर हिन्दी का प्रभुत्व होगा किन्तु कानून के अनेक मूल भावनाओं की तरह यह भी अपना उचित स्थान नहीं प्राप्त कर सका है|
हमारे पडोसी बांग्लादेश में बांग्ला भाषा ही एक मात्र राष्ट्रभाषा है| किन्तु यह भारत सरीखे देश में संभव नहीं है क्योंकि इस देश में राज्यों का विभाजन ही भाषायी आधार पर हुआ है| ऐसे में भारतीय संविधान के निर्माण करने वाले डॉ॰ अंबेडकर का मत था कि संस्कृत इस देश की राष्ट्र भाषा बने तथा राज्य अपने हिसाब से अपनी अधिकारिक भाषा का चयन करें|
किन्तु राज्यों में अपनी-अपनी आधिकारिक भाषा का चयन तो हो गया परन्तु हिंदी अभी भी राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा नहीं पा सकी है| संपूर्ण देश की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जिसे सभी की मान्यता मिले किन्तु अभी तक ऐसा हो नहीं पाया है|
यहाँ यह समझने की ज़रूरत है राष्ट्रभाषा की आवश्यकता राष्ट्रीय एकता एवं संवाद हेतु होती है| स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम किया और एकता का प्रतीक बना|
गौर से देखा जाये तो दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानंद आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने विचारों को देश के सामने रखा| इसके अलावा असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि ने इसी भाषा को देश के प्रति अपने भावों को व्यक्त करने में एक सशक्त माध्यम के तौर पर प्रयोग किया|
यहाँ तक कि अंग्रेजो ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिंदी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न–भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिंदी को सराहा।
तमाम विद्वानों ने भी देश की एकता के लिए हिंदी की ही पैरवी की चाहे वो राजा राम मोहन राय हो या स्वामी दयानंद सरस्वती या फिर अरविन्द घोष या तिलक| गांधीजी ने यहाँ तक कहा कि हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया।
वर्ष 1918 ई. में इंदौर अधिवेशन में हिंदी साहित्य सम्मेलन के दौरान सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा हिंदी का समर्थन करते हुए यह प्रस्ताव पारित किया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएँ और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएँ सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए वहां भेजा जाये| गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को इस हेतु चेन्नई भी भेजा।
किन्तु जिस एकता और समर्पण की बात आज़ादी से पहले हुआ करती थी आज के दौर में हम सबने उसे कहीं पीछे छोड़ दिया है| हिंदी के सम्बन्ध में भी यही सत्य है| हिंदी दिवस अथवा हिंदी पखवारा मनाने तक सीमित न रहे इसके लिए विशेष प्रयास किये जाने होंगे|