प्रार्थना -1

तरुण प्रकाश, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 
प्रार्थना शब्द के साथ जो मानसिक चित्र उभरता है, वह बड़ा ही पवित्र, निश्छल व शांत है- कहीं दूर वादियों में चाँदी की घंटियों की जल तरंग- पहाड़ों की चोटियों पर तैरता सुवासित धूम्र और प्रकृति की अधमुँदी आँखों में तैरता संतोष की पराकाष्ठा तक पहुँचा एक जादू । कितना पवित्र – कितना अलौकिक – कितना दिव्य ।
प्रार्थना व्यक्ति और परमात्मा के बीच संपर्क सेतु है। इस सेतु का प्रयोग कर अपने नश्वर शरीर व स्थूल काया के साथ ही परम सत्ता की ऊर्जा को महसूस करना कितना विचित्र एवं कितना आनंददायी अनुभव है।
प्रार्थना है क्या? यह प्रश्न मेरे मस्तिष्क में प्रायः उमड़ता है। क्या प्रार्थना मांगने की कला है? अथवा प्रार्थना शिकायत का शिष्ट साधन? प्रार्थना एक सकारात्मक सत्ता है अथवा एक नकारात्मक प्रक्रम?
इस प्रश्न के आ खड़े होने के पीछे मेरा वह अनुभव है जो ह्रदय और मस्तिष्क के द्वंद्व से उत्पन्न हुआ। जहाँ तक मेरा ज्ञान है, संसार के हर धर्म, हर समाज, हर विश्वास व हर मत के लोगों में अपने ईश्वर की स्तुति एवं प्रार्थना करने का चलन है। संसार में प्रार्थनाओं के विभिन्न प्रकार प्रचलित हैं। हिन्दू धर्म में आरती, भजन व कीर्तन इत्यादि के रूप में तो इस्लाम धर्म में नात व कव्वाली के रूप में तो ईसाई धर्म में प्रेयर के रूप में उपस्थित हैं। आप इनमें से अधिकांश में पायेंगे कि ये मात्र शिकायतों और मांगों का पदबद्ध स्वरूप हैं।इन सभी में भक्त (?) ईश्वर से अनेकानेक वस्तुओं की मांग करता है, अनेकों अभिलाषाओं, अनेक इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति कराना चाहता है तथा अनेकों शिकायतें करता है। शिकायतें भी कैसी — है ईश्वर, तुमने कितनी देर लगा दी मेरी पुकार सुनने में? मेरी पुकार कब सुनोगे तुम? तुमने संसार में सबको दिया है, सबकी इच्छायें पूरी की हैं – मेरी बारी कब आयेगी? आदि-इत्यादि । ये बढ़ती मांगों का अंबार, ये इच्छाओं की पूर्ति की उलाहना, विलम्ब व पक्षपात के आरोप क्या आपको मात्र ‘शिकायती पत्र’ नहीं लगते जिन्हें सस्वर पढ़ना होता है? क्या आपको नहीं लगता कि यह प्रत्येक भक्त  द्वारा महान् ईश्वर का परीक्षा परिणाम तैयार करने जैसा है जिसमें मांगों इच्छाओं और शिकायतों की पूर्ति के आधार पर ईश्वर को अंक दिये जाने की व्यवस्था है? ये सारी व्यवस्थाएँ उस पुरातन सिद्धांत की तो धज्जियां उड़ा देती हैं जिसके अनुसार ईश्वर अपने भक्त की परीक्षा लेता है। सत्यता तो यह हेै कि भक्त ईश्वर को परखता है और अपनी संतुष्टि-असंतुष्टि के आधार पर प्रायः अपनी आस्था का बिंदु और कभी-कभी तो अपना धर्म तक बदलता रहता है।
मैंने जब इस विषय पर अपना  ध्यान और अधिक केन्द्रित किया तो मुझे एक अन्य विचित्र बात का भी अनुभव हुआ। अनेक धार्मिक कथाओं, स्तुतियों एवं वृत्तांतों इत्यादि में अधिकांशतः एक ही बात अलग-अलग ढंग से पिरोई गयी है – ईश्वर की पूजा करो, ईश्वर का गुणगान करो, ईश्वर की आराधना करो नहीँ  तो ईश्वर दण्ड देगा। अमुक व्यक्ति नै ईश्वर की आराधना की – पूजा अर्पण किया तो ईश्वर प्रसन्न हुआ और उस व्यक्ति का अमुक कार्य पूर्ण हो गया, अमुक व्यक्ति ने ईश्वर की पूजा नहीं की तो उसे अमुक हानि उठानी पड़ी, नदियों में बाढ़ आ गयी, कहीं भूकंप आ गया तो कहीं  तूफान ने नगर के नगर तबाह कर दिये। मुझे समझ में नहीं आता है कि सारी सृष्टि का रचनाकार, सबको जन्म देने और भरणपोषण करने वाला ईश्वर भला आतंकवादी कैसे हो सकता है। वह ईश्वर जो दया का सागर है, जो करुणा का अनंत स्रोत है, जो अपने भक्तों के हर अपराध को क्षमा करता है – वह निर्दयी कैसे हो सकता है?
ईश्वर की सत्ता से कथित रूप से जुड़े ये सिद्धांत स्व-विरोधी हैं। या तो ईश्वर दया का सागर है, करुणा का अनन्त स्रोत है अथवा वह निर्दयी और क्रूर है। इनमें से कोई एक ही बात सच हो सकती है। दूसरी निश्चित रूप से कृत्रिम व भ्रामक है तथा उसे किसी विशेष प्रयोजन से अस्तित्व में लाया गया है।
मैंने प्रायः लोगों से सुना है- ‘मैं धर्मभीरू व्यक्ति हूँ , आयम ए गाड फीयरिंग परसन।’ ईश्वर से डर का क्या कारण है? धर्म  से आंतकित रहने के पीछे क्या वजह है? दुनिया का प्रत्येक धर्मशास्त्र अपने अनुनायियों के समक्ष ईश्वर की एक आतंकवादी, क्रूर व कठोर छवि क्यों प्रस्तुत करता हेै? ईश्वर के नाम पर क्यों डराता हेै? क्या ईश्वर राक्षस है, दैत्य हेै या आदमखोर है? कहीं यह एक विशेष वर्ग का युग-युगीन सुरक्षा कवच तो नहीं है? कहीं यह स्वार्थ की अट्टालिकाओं पर चढ़ा हुआ रोगन तो नहीं जिसकी चकाचौंध में हम अपनी आँखें लगभग बंद रखने को विवश है और जिसकी तीव्र विषैली गंध हमें अंधा बना रही है?  कहीं यह एक सोची समझी साजिश तो नहीं है जो हमें ईश्वरीय सत्ता से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ने नहीं देती? कहीं यह हमारी विवेक की सतह पर निरुउद्देश्य व तर्क विहीन आस्था की सीमेंट लगाने का कुचक्र तो नहीं है?
सभ्यता के प्रारंभिक बिंदु से हर कालखंड में समाज के एक विशेष वर्ग में शासन की प्रवृति ने भी जन्म लिया है। शासन और सिंहासन की यह प्राप्ति या तो शारीरिक बल से संभव हो सकी जिसने निर्बलों पर शासन किया अथवा यह मानसिक स्तर पर जनसमुदाय को अपंग बना कर संभव हुई जिसने आस्था और विश्वास के नाम पर हमारी विवेक शक्ति को क्षीण कर दिया। शारीरिक बल से प्राप्त शासन तो विजेता की मृत्यु अथवा पराजय के साथ समाप्त व पुनः किसी विजेता की विजय से प्रारंभ होता रहा किन्तु ईश्वर का आतंक सिद्ध कर हमारी चेतना पर किया गया विषैला लेप जब-जब हल्का हुआ, हमने स्वयं उसे और गाढ़ा कर लिया और जनसमुदाय के घुटने ऐसी शक्ति और सत्ता के सामने मुड़े के मुड़े ही रहे।शारीरिक बल पर थोपी गयी कारागार से तो समय आने पर सलाखें मोड़ कर विमुक्ति के वृत्तांत तो इतिहास में उपस्थित हैं किन्तु मानसिक कारा कैसे टूटेगी? कई बार तो आपको भी ऐसा अवश्य आभास होता होगा कि आपके और ईश्वर के मध्य कोई मजबूती से कदम जमा कर खड़ा हुआ है।
ईश्वरीय नियम तो नैसर्गिक हैं – प्राकृतिक हैं किन्तु ईश्वर आराधना,  पूजन और ईश्वर प्राप्ति के नियम किसने बनाये हैं ? ईश्वर ने तो कदापि नहीं। ईश्वर ने किस पुस्तक में लिखा है कि सवेरे शाम की आरती के बिना ईश्वरीय सम्पर्क नहीं हो सकता अथवा पाँच समय की नमाज़ के बिना अल्लाह मियाँ को नहीं पाया जा सकता या रविवार की चर्च की प्रेयर के बगैर गाड को महसूस नहीं किया जा सकता ? सत्यता यह है कि ऐसे सारे नियम हमारे समाज की ही ‘धर्म इंडस्ट्री’  से निकले हैं। अर्थात ये व्यक्ति द्वारा व्यक्तियों के लिये बनाये गये नियम हैं और जो नियम स्वयं वयक्तियों द्वारा बनाये गये हैं,  उनके ईश्वरीय होने का दावा भला कैसे किया जा सकता है?
ईश्वरीय पूजन की अनेक पद्धतियाँ – हर पद्धति में हजारों लाखों का चढ़ावा – दान- समर्पण – धन दौलत – आखिर ईश्वर  कितना भूखा है, कितना प्यासा है, उसे कितने धन की अावश्यकता है, उस धन का ईश्वर क्या करेगा ? ये तमाम प्रश्न  मेरे मन में प्रायः उमड़ते रहते हैं। मुझे सदैव लगता हेै – इस सृष्टि का रचयिता महान् ईश्वर भूख और प्यास से पूर्णतया परे है। जिसकी सारी सृष्टि है – उसे हमारे धन की अर्थात रुपया, डालर, पौंड, दरहम, लीरा, यूरो आदि इत्यादि की क्या आवश्यकता है? विश्व का सारा धन मिलकर भी पृथ्वी में मिट्टी का एक अतिरिक्त कण भी नहीं जोड़ सकता है और ईश्वर तो रोज़ नये तारों को जन्म देता हेै। आखिर हम किसको धन देना चाहते हेैं? हम किसकी आवश्यकताएं पूरी कर रहे हैं? प्रत्येक धर्म स्थल पर बड़े-बड़े दानपात्र रखे हुये हैं – बड़ी -बड़ी चादरें बिछी हुईं हैं – कहीं कहीं तो दान के विरुद्ध रसीद की भी व्यवस्था है। क्या आपको आश्चर्य नहीं होता है? सच है, हमें कोई आश्चर्य नहीं होता क्योंकि भक्ति, आस्था और विश्वास के नाम पर हम युगों-युगों से जो प्रसाद ग्रहण करते आयें हैं, उसमें धूर्तता और मक्कारी की इतनी संखिया मिश्रित है जिसने इस विशिष्ट क्षेत्र के प्रति हमारी चेतना और विवेक को ही मरणासन्न कर दिया है। हमें आश्चर्य तो तब होता है जब उत्तराखण्ड में ऋषिकेश से हरिद्वार की ओर यात्रा करते हुये हम मार्ग में एक एेसे मंदिर में दर्शन का सौभाग्य पाते हैं जिसके मुख्य द्वार पर ही लिखा हेै – इस मंदिर में धन अथवा अन्य कोई भौतिक चढ़ावा चढ़ाना मना है। जिस ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया हेै, वह हमसे प्रेम एवं श्रद्धा के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहता है। यही नहीं, उस मंदिर का प्रबंधन श्रृद्धालुओं व यात्रियों के लिये प्रसाद के रूप में स्वादिष्ट खिचड़ी व चाय की निशुल्क व्यवस्था करता है। हमें आश्चर्य तो तब होता है जब कोई ईश्वर भक्त किसी मंदिर के दानपात्र में अपनी कोई धनराशि न डालकर किसी निर्धन परिवार के किसी होनहार बच्चे की आजीवन शिक्षा का भार ग्रहण करता है। शायद हम भक्ति के मूल उद्देश्य से मीलों भटक गये हैं । ईश्वरीय भक्ति ईश्वरीय रचनाओं से प्रेम करना है – ईश्वरीय सत्ता पर पूर्ण विश्वास रखते हुये उसके द्वारा दिये गये शरीर उसकी इस सुन्दर सृष्टि में अपने सृजनात्मक प्रयासों द्वारा अपनी भूमिका का सफल निर्वाह करना है।
मैं समझता हूँ कि हम सब एक षडयंत्र के चलते ईश्वरीय भक्ति के नाम पर एक विशेष वर्ग की उदरपूर्ति करते रहे हैं जो हर काल में, हर युग में हमारे और ईश्वर के मध्य आ कर खड़ा हो जाता है, जो हमारी निश्छल भक्ति में बाधा है, जो प्राकृतिक ईश्वरीय प्राप्ति में रोड़ा है, जो हमारे लिये ईश्वर प्राप्ति हेतु वह मास्टर प्लान तैयार करता है जो एक षडयंत्रकारी पहेली के अतिरिक्त और कुछ नहीं और जिनके स्वार्थपरक नियमों का पालन करते हुये हम अपने खून-पसीने की कमाई का चढ़ावा लिये नित्य प्रति इस विशेष वर्ग की अनंत क्षुधा शान्त करने के प्रयास में पंक्ति दर पंक्ति खड़े रहते हैं।
यदि हम इन विशिष्ट नियम समूहों का पालन करते हैं और उनके औचित्य पर कोई प्रश्न नहीं उठाते हैं तो हम ‘आस्तिक’ कहलाते हैं और यदि हम इस व्यवस्था के विरोध में अपनी असहमति दर्ज कराते हैै तो हम ‘नास्तिक’ करार दिये जाते हैं। ये दो शब्द ‘आस्तिक’ एवं ‘नास्तिक’ किसके मस्तिष्क की उपज हैं? ये शब्द ईश्वरीय तो नहीं हैं और न ही इनका ईश्वर से कोई प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध ही है। धर्म के नाम पर अफीम का सेवन करने वाला यह तथाकथित ‘आस्तिक’ समाज कथित ‘नास्तिकों’ को अपने समाज से बाहर खदेड़ देने तक आतुर रहता है किन्तु मेरा विश्वास है कि ‘नास्तिक’ किसी भी ‘आस्तिक’ से बड़ा और महान् ईश्वर भक्त है। वह अपने और ईश्वर के मध्य किसी दलाल को स्वीकार नहीं करता और ईश्वर प्राप्ति की उसकी आराधना किसी पूजा की दुकान से होते हुये सम्पन्न होने की मोहताज नहीं हेै। वह ईश्वर को स्वयं महसूस करना चाहता है। वह ईश्वर से संबंध के बाहरी मार्ग नहीं खोजता वरन्‌ वह अपने अंदर की यात्रा करना चाहकर ईश्वरीय मूल के बिंदु तक पहुँचना चाहता है। वह किसी बात को, तथ्य को अथवा घटना को मात्र पढ़कर या सुनकर विश्वास योग्य नहीं मानता क्योंकि ईश्वर इतिहास नही है। ईश्वर तो निरंतर है। उसे यदि व्यतीत हुये कल में महसूस किया जा सका है तो निश्चित रूप से वर्तमान में और भविष्य में भी महसूस किया जाना संभव है। वह इस घटना का चश्मदीद साक्षी बनने का अभिलाषी है। उसकी समिधा धन-दौलत, वस्त्र व पकवान की नहीं वरन्‌ परम श्रृद्धा, अनंत प्रेम, निश्छल समर्पण व अटूट विश्वास की है।
किसी चीज़ को ‘मानने’ से ‘जानना’ सदैव बेहतर होता है। मैंने अनेक साहित्यों का अध्ययन किया है, महान् लेखकों व विचारकों के विचार साझी किये हैं और सबके मूल में एक ही बात है – ‘हम अंतरिक्ष के हिस्से हैं और हमारे अंदर भी एक अंतरिक्ष है। हम सब बीजों के समान हैं। कोई बीज पनपता ही नहीं है, कोई खुलता ही नहीं है, कोई मात्र थोड़ा सा खुलकर नव पल्लव उत्पन्न करता है तो किसी किसी से अनेकों फूल उत्पन्न हो जाते हैं किन्तु प्रत्येक बीज के अंदर एक पूरी सृष्टि को जन्म देने की संभावना मौजूद है।
क्रमशः ….

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