By: C.P. Singh, Literary Editor-ICN Group
एक वो- दिन थे, मां थी – प्रभु सी, तन- मन, दुःख से परे ।
अब तो सुधि है, निधि सी उसकी, सकल- कलेश – भरे ।
एक वो दिन थे, कुछ भी जिद की, मां –भण्डार –भरे ।
अब तो लगे, हूं- हठ- प्रकृति की, मां- हित- नयन- झरे ।
एक वो दिन थे, गोद में मां की, जग के सुख- सगरे ।
अब तो तन चले, कृपा उसी की, को – कहां- रुहठि करें ?
एक वो दिन थे, मां- रक्षक थी, तन- मन- दांव धरे ।
अब तो उर में भरी- भाव सी, इंगित- सुत को करे ।
एक वो दिन थे, मां- औषधि थी, छुए से ज्वर उतरे ।
अब तो मां- बिनु, बाढ- दुःख की, कौन वो स्नेह करे ?
एक वो दिन थे, सीख की झिड़की, कुम्भ- कुम्हार करे ।
अब तो जग है, अनथ सी खिड़की, को सिर- हस्त- धरे ?
एक वो दिन थे, मेरे- हित की, सुधि- नित मां- चित रे ।
अब तो मुझ में, सुधि है उसकी, पर कुछ सकि न करे ।
इक वो दिन थे, चरण में उसकी, सब- तीरथ थे भरे ।
अब तो तीरथ जाकर मन- की, उलझन नाहिं टरे ।
एक वो दिन, आशिष- सिर रखती, तन- मन- कष्ट हरे ।
अब तो सिर है झुकने हित ही, फिर भी- पथ न सरे ।
एक वो दिन थे, जब जननी थी, तन न खरोंच परे ।
अब तो कांटों पर चलने की, प्रवृत्ति- प्रारब्ध- भरे ।
‘चाकर’ निधि अनमोल –जीवन की, “मां” बिधि उछिन्द करे ।
क्रमशः