“इंद्रियो पर नियंत्रण करने का अभ्यास” अथवा “इंद्रियो पर विजय पाने का अस्त्र” है “रोज़ा”

एज़ाज़ क़मर, एसोसिएट एडिटर-ICN
नई दिल्ली: रोज़ा’ अथवा ‘व्रत’ और ‘उपवास’ का इतिहास पुरानी सभ्यताओ के इतिहास के समान ही पुराना है, क्योकि मानवीय सभ्यता के विकास के बाद स्वास्थ्य और धार्मिक कारणो से व्रत और उपवास की परंपरा शुरू हो गई थी,धार्मिक उत्प्रेरक तत्वो मे प्राचीन परंपराओ और आध्यात्मिकता का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
आम धारणा यह है, कि व्रत, उपवास और रोज़ा एक ही शब्द के पर्यायवाची है,किंतु वास्तव मे ऐसा नही है,क्योकि व्रत और उपवास दोनो अलग-अलग “अम्ल” (कर्म) है और इन दोनो का ‘सामूहिक कर्म’ (अम्ल) “रोज़ा” कहलाता है।
अगर रोज़ा को बीज गणितीय समीकरण मे लिखा जाये, तो इसका मान होगा व्रत+उपवास = रोज़ा
व्रत का तात्पर्य व्यक्तियो द्वारा किया गया ‘संकल्प/नीयत/शपथ/प्रण/इरादा’ आदि है अर्थात किसी काम के लिए कोई संकल्प (नीयत) करना,जैसे ‘मैने अपने घर मे जगह कम हो जाने के कारण पुराना पेड़ काट दिया था, लेकिन अब “मै प्रण करता हूँ, कि जीवन भर आस-पास उपलब्ध भूमी पर वृक्षारोपण करूंगा, फिर हर रविवार की सुबह 4 घंटे उनकी सेवा करूंगा और जीवन भर उन वृक्षो की सुरक्षा करूंगा”।
इसी तरह पंथ तथा जीवन-शैली से जुड़े किसी प्रकार के संकल्प अथवा नीयत को व्रत कहते है,क्योकि “धर्म तो शाश्वत होता है” जैसे सूर्य का प्रकाश देना, अग्नि का जलना, पानी का बहना, बिच्छू का डंक मारना इत्यादि।
सनातन धर्म मे व्रत रखना एक पवित्र कर्म है और मूलत: तीन प्रकार के व्रतो का उल्लेख मिलता है,”नित्य व्रत” मे ईश्वर भक्ति या आचरण पर बल दिया जाता है, जैसे सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियो का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और पर-निंदा न करना, प्रतिदिन ईश्वर भक्ति आदि का “संकल्प लेना”।
“नैमिक्तिक व्रत” मे किसी प्रकार के पाप हो जाने या दुखो से छुटकारा पाने का विधान होता है,”काम्य व्रत” किसी कामना (मन्नत) की पूर्ति के लिये किये जाते है, जैसे पुत्र प्राप्ति के लिये, धन- समृद्धि के लिये या अन्य कोई मन्नत।
“वार्षिक चक्र” के आधार पर व्रत ‘साप्ताहिक’ (सप्ताह मे एक दिन का व्रत), ‘पाक्षिक’ (15-15 दिन के दो पक्ष अथवा कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के व्रत जैसे चतुर्थी, एकादशी, त्रयोदशी, अमावस्या और पूर्णिमा के व्रत इत्यादि), ‘त्रैमासिक’ (पौष, चैत्र, आषाढ़ और अश्विन मास मे नवरात्रि), ‘छह मासिक’ और ‘वार्षिक व्रत’ (श्रावण माह के सोमवार या पूरे माह के व्रत) होते है।
इस्लाम मे व्रत (नीयत) का बहुत महत्व है और इसके बग़ैर कोई कर्म (अम्ल) फल कारक नही हो सकता है अर्थात उस अम्ल (कर्म) का सवाब (पुण्य) नही मिलता है या बहुत कम मिलता है,
इस्लाम मे “पांच फर्ज़” है और हर फर्ज़ शुरू करने से पहले व्रत (संकल्प) अथवा नीयत करना ज़रूरी है।
नीयत के महत्व को सर्वाधिक हदीस के संकलन वाली किताब बुख़ारी मे वर्णित किया गया है, ‘बुख़ारी’ की पहली हदीस ही नियत (व्रत) के संदर्भ मे है;
{उमर बिन अल-खत्ताब ने कहा, कि मैने अल्लाह के रसूल को यह कहते हुये सुना; कि “कर्मो का इनाम (पुण्य) इरादो (नियत) पर निर्भर करता है और हर व्यक्ति को उसके इरादे (नियत) के अनुसार इनाम मिलेगा………..”।
(सही बुखारी अध्याय 1, किताब 1, संख्या 1)}
मनुष्य के जीवन मे इस्लाम की शुरुआत “कलमा” पढ़ने से होती है अर्थात मुसलमान का पहला फर्ज़ “कलमा” (मूल-मन्त्र) है,
[ “ला इलाहा इलल्लाह,
 मुहम्मदुर्रसूलुल्लाहि”
{“ला इलाहा इल्ला-अल्लाह,
 मुहम्मद-उर-रसूल-अल्लाह”}
{अल्लाह के सिवा कोई माबूद (पूज्यनीय) नही है,
मुहम्मद (ﷺ) उस ईश्वर के प्रेषित है (मुहम्मद (ﷺ) उसके रसूल है)}]
कलमा तो ज़बान से पढ़ा जाता है, लेकिन उससे पहले इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतो पर व्यक्ति को व्रत (संकल्प) करना पड़ता है अर्थात इस्लाम के बुनियादी उसूलो मे विश्वास करते हुये, उसे ‘नीयत करनी पड़ती है’।
इस्लाम के बुनियादी उसूल है, कि “अल्लाह एक है, वह सर्वशक्तिमान है, उसे ना किसी ने जन्म दिया है और ना उसने किसी को जन्म दिया है”,”उसने सारे ब्रह्मांड और जीवधारियो की रचना करी है”।
‘उसने मनुष्य को पैदा करके पृथ्वी पर कर्म करने के लिये भेजा है’,’मनुष्यो के मार्गदर्शन के लिये उसने सवा लाख पैगंबरो (जिनमे से चार को किताबे और कई पैगंबर को पुस्तिकाये दी) को संसार मे भेजा’,”पैगंबर हज़रत मुहम्मद (ﷺ)  साहब आखिरी पैगंबर है”।
ब्रह्मांड को एक दिन नष्ट हो जाना है अर्थात “क़यामत आनी है”, ‘हर मनुष्य और हर जीवधारी की मृत्यु होना है’, ‘क़यामत के बाद हर मृत जीवधारी को पुन: जीवित किया जायेगा’, फिर ‘हर व्यक्ति के कर्मो का हिसाब-किताब होगा’,”हिसाब-किताब के आधार पर उसे सफलता (स्वर्ग) और असफलता (नर्क) मिलेगी”।
[{(ऐ रसूल!) कहो, “वह (अल्लाह) एक है” (ख़ुदा एक है)।
(कुरान 122:01)}
{“अल्लाह निरपेक्ष अर्थात सर्वाधार है” (ख़ुदा बरहक़ बेनियाज़ है)।
(कुरान 122:02)}
{“न उसने किसी को जना न उसको किसी ने जना” (ना उसकी कोई औलाद है, ना वह किसी की औलाद है)।
(कुरान 122:03)}
{“और न कोई उसका समकक्ष है” (और उसका कोई हमसफर नही)।
(कुरान 122:04)}]
मुसलमान का लिये “दूसरा फर्ज़” नमाज़ है, एक मुसलमान के लिये आठ वक्त (Times) पर “नमाज़” पढ़ने का आदेश है, जिसमे से पांच वक्त (Times) की नमाज़ “फर्ज़” (अनिवार्य) है।
पाँच बार (Times) की प्रार्थनाओ (नमाज़/Salat) मे से प्रत्येक का निर्धारित समय सूर्य की दिशा-दशा अथवा गति से मापा जाता है,
‘भोर (सुबह सादिक) और सूर्योदय (तुलू आफताब) के बीच’ मे “फजर” की नमाज़,
‘सूरज के अपने ज़ीनत (शीर्षबिंदु) से गुज़रने के बाद’ मे “ज़ुहर” की नमाज़,
‘दोपहर मे वस्तु की परछाई दो गुनी हो जाने के बाद (अपराहन)’ मे “असर” की नमाज़,
‘सूर्यास्त (ग़ुरूब आफताब) के बाद और आसमान पर लाली रहने के बीच’ मे “मग़रिब” की नमाज़,
फिर अंत मे ‘रात के वक़्त आसमान पर सफेदी आ जाने के बाद’ मे “ईशा” की नमाज़ होती है।
हर वक़्त (Times) नमाज़ मे अलग-अलग प्रकार (Types) की नमाज़ होती है, जिसका निर्धारण ‘आसन’ (रकात) से किया जाता है, यह नमाज चार प्रकार (Types) की होती है, इसको “फर्ज़” (अनिवार्य), “वाजिब” (अर्ध-अनिवार्य), “सुन्नत” (कर्त्तव्यातिक्ति) और “नवाफिल” (स्वैच्छिक) कहते है,
यह नमाज़ दो, तीन या चार “रकात” (आसन) की होती है।
रकात की शुरुआत ‘खड़े होकर’ (“क़याम”) पहले ‘नीयत’ (व्रत) करने के बाद, तकबीर अर्थात ‘रफा-यदैन’ (कानो तक दोनो हाथो को ले जाना) करने के से होती है,उसके बाद मंत्रोच्चारण किया जाता है,फिर “रुकू” (घुटनो पर हाथ रखकर खड़े होना) होता है,फिर पुनः सीधे खड़े होकर “सजदा” (जमीन पर सर रखना) किया जाता है, इस तरह पहली रकात पूरी हो जाती है।
एक रकात मे “क़याम”, “रुकू” और दो “सजदे” होते है, हर दो रकात के बाद “तशहुद” (घुटने मोड़कर बैठना) मे मंत्रोच्चारण करके, फिर दोनो तरफ मुंह करके ‘सलाम’ किया जाता है, इस तरह दो रकात की नमाज़ पूर्ण हो जाती है।
एक वक्त की नमाज़ मे फर्ज़, सुन्नत, वाजिब और नवाफिल हो सकते है, इनकी “रकात” पढ़ने की प्रक्रिया एक जैसी होती है,किंतु अंतर सिर्फ “नीयत” (व्रत) का होता है,अत: नीयत के बग़ैर नमाज़ सही नही हो सकती है अथवा ग़लत हो जायेगी।
मुसलमानो का तीसरा फर्ज़ रोज़ा है,भोर से पहले भोजन (सहरी) किया जाता है,उसके बाद ‘रोज़ा’ का व्रत (नीयत/संकल्प) करके दिन-भर के लिये भोजन, पानी, सहसवास, चिकित्सा, मसाज जैसी क्रियाओ को त्याग दिया जाता है, फिर सूर्यास्त के बाद सामान्य जीवन जिया जाता है और रात मे विशेष नमाज (तरावीह) पढ़ी जाती है।
रोज़ा की नीयत है,
[ ‘’व बि सोमि गदिन नवई तु मिन शहरि रमज़ान’’
(मैंने माह रमज़ान के कल के रोजे की नियत की है)]
अगर ‘रोज़ा’ की नीयत नही करी, तो वह ‘डायटिंग’ (वजन घटाने के लिये किया जाने वाला उपवास) माना जायेगा, इसलिये यह सलाह दी जाती है कि रात को सोने से पहले ही रोज़ा की नीयत कर ले, क्योकि हो सकता है कि सहरी के वक्त आपकी आंख ना खुले।
मुसलमानो का “चौथा फर्ज़” ज़कात है, “ज़कात” मे भी नीयत (संकल्प) का बहुत महत्व है, क्योकि अगर आप नीयत (इरादा) नही करेगे, तो उसे साधारण “दान” (सदका) माना जायेगा, दूसरे कुछ विशेष लोगो और स्थानो पर दान (सदका) देना प्रतिबंधित होता है, वहां पर “धर्माथ” (हदिया) दिया जाता है।
अगर एक मुसलमान ने किसी जरूरतमंद व्यक्ति को कर्ज़ दिया और वह व्यक्ति कर्ज़ लौटाने मे असफल रहा, इसी बीच ज़कात देने का समय आ गया और तब मुसलमान ने वह रक़म कर्ज़ के खाते से निकालकर ज़कात के खाते मे लिख दी, इस स्थिति मे ज़कात नही बल्कि दान (सदका) माना जायेगा, क्योकि उसने कर्ज़ देने से पहले ज़कात की नीयत नही करी थी,अत: ‘नीयत के बगैर ज़कात का कर्म (अम्ल) पूरा नही होगा’।
मुसलमानो का “पांचवा फर्ज़” हज है, “हज” मे व्रत (नीयत) का सर्वाधिक महत्व है, क्योकि इसमे मन मे संकल्प (नीयत) लेने के साथ-साथ ज़बान से भी संकल्प (नीयत) बोलना पड़ता है।
“हज्जे इफराद‘‘ मे सिर्फ हज की नीयत होती है,
“हज्जे किरान‘‘ मे हज उमरा दोनो की एक साथ नीयत की जाती है,
“हज्जे तमत्तो‘‘ मे सिर्फ उमरा की नीयत होती है।
यद्यपि हज की प्रक्रिया एक ही होती है, किंतु कर्म-कांडो के कारण तीनो मे अंतर आ जाता है,
हज्जे-इफराद और हज्जे-किरान मे “एहराम” (हज के वस्त्र धारण करना तथा हज का शुभारंभ होना) शुरूआत से हज के खत्म होने तक बाकी (धारण) रहता है।किंतु हज-तमत्तो मे उमरा करके एहराम खुल जाता है, फिर हाजी अपने घरेलू कपड़ो मे रहता है,लेकिन ज़िलहिज्जा (माह) की आठ तारीख़ को दोबारा ‘एहराम’ बांधता है़।
तीसरा फर्क यह है, कि हज्जे-किरान और हज्जे-तमत्तो मे हज की कुरबानी वाजिब है, जबकि हज्जे-इफराद मे हज की कुरबानी मुस्तहब है।
मक्का मुकर्रमा पहुंचकर पहले उमरा करना होता है, [हज्जे-तमत्तो के उमरा की नीयत के लिये बुलंद आवाज़ से निम्नलिखित तसबीह (मंत्र) पढ़ी जाती है;
{“अल्लाहुम्मा इन्नी उरी-दुल उमरत: फा यस्सिर-ही ली वा तक़ब्बल-ही मिन्नी”।
( ऐ अल्लाह !
मैं उमरे की नीयत करता हूं, तू आसान फरमा और कुबूल फरमा)}
हज्जे-तमत्तो के लिये नीयत :-
{“अल्लाहुम्मा इन्नी उरी-दुल हज्जा फा यस्सिर-हू ली वा तक़ब्बल-हू मिन्नी”।
( ऐ अल्लाह !
मैं हज की नीयत करता हूं, तू आसान फरमा और कुबूल फरमा)}]
हज के मामले मे नीयत बहुत ही नाज़ुक मामला है’ ज़रा सी भी लापरवाही हज को खराब कर सकती है।अत: हम यह कह सकते है,कि नीयत के बगैर सारे फर्ज़ सही से अदा नही होते है, इसी से व्रत की महत्ता का आकलन किया जा सकता है।
संस्कृत मे “उप” का अर्थ ‘समीप’ और ‘”वास’ का अर्थ ‘बैठना’ अर्थात परमात्मा का ध्यान लगाना, उनकी जप-स्तुति करना है,आज के समय मे उपवास से तात्पर्य ‘भोजन और शारीरिक सुखो को त्यागने’ से है, अलग-अलग धर्म के लोग अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओ के अनुसार अलग-अलग समय पर भोजन और शारीरिक सुखो का त्याग करते है।
सिख धर्म को छोड़कर सभी धर्मो मे उपवास की परंपरा है, क्योकि सिख पंथ “सूफीवादी जीवन-शैली” अर्थात “मानव धर्म” को मानता है, जिसके मूलभूत सिद्धांतो मे से एक व्यक्तियो को भोजन कराना है, इसलिये इस महान सूफीवादी पंथ मे उपवास का कोई औचित्य नही रहता है।
इसाई धर्मगुरुओ के मतभेद की वजह से इसाई धर्म मे उपवास एक विवादास्पद विषय बना हुया है, क्योकि ‘यीशु’ ने अपने शिष्यो को ना कोई ऐसी आज्ञा दी थी और ना ही शिष्यो (चेलो) के उपवास रखने का कोई सबूत है,“लेंट” का पहला उल्लेख 330 ईसवी मे लिखी “आर्चबिशप अथेनेसियस” (Athanasius the Apostolic) की चिट्ठी मे मिलता है, कि “यीशु ने अपने बपतिस्मे (Baptised) के बाद उपवास रखा था, ना कि अपनी मौत से पहले”।
इसाई धर्म गुरुओ के अनुसार बाइबिल मे उपवास करने का आदेश नही बल्कि यह विचार था (मत्ती 9:15) अर्थात यीशु के कहने का मतलब यह था; कि “उसके मरने के बाद उसके चेले ग़म मे इस कदर डूब जायेगे कि उनकी भूख-प्यास ही मिट जायेगी”,किंतु आज “लैंट” (Lent) के दौरान बड़ी संख्या मे इसाई संप्रदाय चालीस दिवसीय उपवास करते है, जिसका शुभारंभ ‘पहले बुधवार’ (Ash Wednesday) को माथे पर ‘राख़ से क्रॉस’ बनाकर किया जाता है और ईस्टर (Easter) से पहले खत्म होता है।
यहूदी धर्म मे उपवास का इतिहास बहुत पुराना है, पैगंबर मूसा ने 40 दिन का उपवास रखा था और पैगंबर दाऊद के उपवास का भी उल्लेख मिलता है,आधुनिक समय मे यहूदियो का मुख्य उपवास “यौम किप्पर”  (Yom Kippur) के दिन माना जाता और “तिशा बव’ (Tisha B’Av) के अवसर पर छह दिवसीय उपवास भी प्रचलित है,इसके अतिरिक्त कई स्वैच्छिक उपवास (Gedaliah, 10 th of Tevet, 17 th of Tammuz, Esther) भी किये जाते है।
समकालीन विश्व के धर्मो मे सर्वाधिक त्याग वाले उपवास जैन धर्म मे रखे जाते है,”तिविहार” उपवास के दौरान सिर्फ उबाल कर थारा हुआ या ‘धोवन पानी’ सूर्योदय के बाद से सूर्यास्त पूर्व तक पिया जा सकता है और “चौविहार” उपवास मे पानी भी निषेध होता है,बुजुर्गो द्वारा मोक्ष के लिये अन्न-जल त्याग कर मृत्यु प्राप्ति के उपवास को “संथारा” कहते है।
कठोर तपस्या और त्याग करने वाले ऋषि-मुनियो का देश भारतवर्ष व्रत और उपवास वाला देश है, इसमे विभिन्न प्रकार के उपवास प्रचलित है, सनातन धर्म मे उपवास जीवन-शैली का महत्वपूर्ण अंग है।
“प्रात: उपवास” (इसमे सुबह का नाश्ता नही करना होता है),
“अद्धोपवास” (इसमे शाम का भोजन नही करना होता है),
“एकाहारोपवास” (इसमे एक समय के भोजन मे सिर्फ एक ही चीज़ खाई जाती है),
“रसोपवास” (इसमे सिर्फ रसदार फलो के रस अथवा साग-सब्जियो का जूस ही लिया जाता है),
“फलोपवास” (इसमे सिर्फ फल या पकी हुई साग-सब्जियां खाई जाती है),
“दुग्धोपवास” अथवा ‘दुग्ध कल्प’ (इसमे सिर्फ दूध ही पिया जाता है),
“तक्रोपवास” अथवा “मठाकल्प” (इसमे सिर्फ मठा ही पिया जाता है),
“पूर्णोपवास” (इसमे सिर्फ ताज़ा पानी ही पिया जाता है)।
उपरोक्त उपवास खाने-पीने की शैली के आधार पर वर्गीकृत किये गये थे और निम्नलिखित उपवास समय सीमा के आधार पर वर्गीकृत किये गये है :-
“साप्ताहिक उपवास” (सप्ताह मे सिर्फ एक पूर्णोपवास),
लघु उपवास- (3 से लेकर 7 दिनो तक का पूर्णोपवास)
“कठोर उपवास” (लम्बी अवधी का पूर्णोपवास),
“टूटे उपवास” (इसमे रोगी और वृद्धजन 2 से 7 दिन तक पूर्णोपवास के बाद रसोपवास या फलोपवास करतेे है, फिर पूर्णोपवास करते है और यह क्रम लम्बी अवधी तक चलता रहता है)
“दीर्घ उपवास” (इसमे 21 से लेकर 50-60 दिन का पूर्णोपवास निश्चित लक्ष्य प्राप्ति के लिये होता है)।
मुसलमानो के लिये रमज़ान के महीने मे उपवास अनिवार्य (फर्ज़) माना जाता है,इस्लाम ने फर्ज़ रोज़ा (अनिवार्य उपवास) और स्वैच्छिक उपवास के अतिरिक्त नफली रोज़ा (गैर-अनिवार्य उपवास) के लिये भी कुछ दिन निर्धारित किये है,  जैसे :-
सप्ताह के प्रत्येक़ सोमवार और गुरुवार का रोज़ा,
प्रत्येक चंद्र माह के 13 वें, 14 वें और 15 वें दिन (तारीख़) का रोज़ा,
शव्वाल के महीने मे छह दिन का रोज़ा (रमजान के बाद का महीना अथवा ईद के दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवे, छठे और सातवे दिन का रोज़ा),
अराफात का रोज़ा (बकरा ईद से एक दिन पहले),
आशूरा से एक दिन पहले (मोहर्रम का 9 वां दिन) का रोज़ा,
आशूरा का दिन (मोहर्रम का 10 वां दिन) का रोज़ा,
आशूरा के दूसरे दिन (मोहर्रम का 11 वां दिन) का रोज़ा।
स्वास्थ्य कारणो से अन्न-जल अर्थात भोजन त्यागने की परंपरा काफी पुरानी है, इसका उल्लेख यूनान के महान औषधि विज्ञानी हिप्पोक्रेट्स (Hippocrates) के कथन से मिलता है, उन्होने कहा था; “बीमारी मे भोजन करना, बीमारी को बढ़ाना है”।
यूनान के इतिहासकार और लेखक प्लूटार्क (Plutarch) का मत था; कि “औषधि लेने के बजाय आज उपवास करो”, प्लेटू (Plato) और अरस्तु (Aristotle) इसके समर्थक थे, गैलन और फिलिप (Philip Paracelsus, the founder of toxicology) ने उपवास को जनसाधारण की जीवनशैली का अंग बनाने के लिए भरपूर प्रयास किये।
19वीं शताब्दी के दौरान अमेरिका मे ‘नेचुरल हाइजीन मूवमेंट” (Natural Hygiene Movement) ने उपवास को एक जन आंदोलन का रूप दे दिया, क्योकि 1928 मे “डॉक्टर हरबर्ट शेल्टन” (Herbert Shelton) ने टैक्सास मे ‘सैन एंटोनियो’ के स्थान पर “डॉक्टर शेल्टन हेल्थ स्कूल” (Dr Shelton’s Health school) खोलकर पूरे देश से लगभग 40000 मरीजो का उपवास द्वारा उपचार किया था,
1920 के दौर मे उपवास द्वारा इलाज करने का आंदोलन पूरे यूरोप मे फैल चुका था (विशेषकर इंग्लैंड) और आज भी डॉक्टर ओट्टो (Dr Otto Buchinger) के द्वारा स्थापित किये गए केंद्रो के माध्यम से यह आंदोलन जर्मनी मे अपनी सेवाये देकर उपवास के द्वारा मरीज़ो का इलाज कर रहा है।
सभी प्राचीन चिकित्सा पद्धतियो मे ‘उपवास’ अर्थात “पेट को खाली रखने” की प्रथा रही है,आयुर्वेद मे बीमारी को दूर करने के लिये शरीर के विषैले तत्वो को दूर करना अथवा शरीर से बाहर निकालना ज़रूरी बताया गया है,शरीर मे जमा विषैले तत्व श्लेष्मा, थूक, पसीना, वमन (उल्टिया) और कभी-कभी दस्त के रूप मे बाहर निकलते है,इन विषैले तत्वो को उपवास कर के शरीर से बाहर निकाला जा सकता है,इसीलिये इसे “लंघन्‌म सर्वोत्तम औषधं” अर्थात उपवास को सर्वश्रेष्ठ औषधि माना जाता है।
विषैले तत्वो के घुलकर शरीर से बाहर निकल जाने से आर्थराइटिस, अस्थमा, उच्च रक्तचाप, हमेशा बनी रहने वाली थकान, कोलाइटिस, स्पास्टिक कोलन, इरिटेबल बॉवेल, लकवे के साथ-साथ न्यूराल्जिया, न्यूरोसिस और कई तरह की मानसिक बीमारियो मे लाभ (फायदा) होता है,लम्बी अवधी के उपवास से कैंसर की बीमारी भी ठीक हो सकती है क्योकि उपवास से ट्यूमर टुकड़े-टुकड़े होकर घुल जाता है।
मनुष्यो के फेफड़ो मे निश्चित दर से वायु भरी तथा निकाली जाती है जिसे “सांस लेना” या “श्वासोच्छवास” (Breathing) कहते है {श्वास लेने की प्रक्रिया दो भागो मे सम्पन्न होती है, जिसको (i) निःश्वसन (Inspiration) और (ii) उच्छवास (Expiration) कहते है},उपवास करने से मनुष्य का श्वासोच्छवास विकार रहित होकर गहरा और बाधा रहित हो जाता है,उपवास से स्वाद ग्रहण करने वाली ग्रंथियाँ पुनः सक्रिय होकर काम करने लगती है।
हमारा शरीर एक स्वनियंत्रित एवं स्वयं अपनी मरम्मत करने वाली कोशिकीय व्यवस्था का अदभुत नमूना है,इसलिये भूखा रहने से पेट को अपनी मरम्मत करने का समय मिल जाता है, उपवास से शरीर के मेटॉबॉलिज्म को सामान्य स्तर पर लाकर ऊतको की प्राणवायु प्रणाली को पुनर्जीवित किया जा सकता है,उपवास जितना लंबा होगा शरीर की ऊर्जा उतनी ही अधिक बढ़ेगी,उपवास आपके आत्मविश्वास को इतना बढ़ा सकता है कि आप अपने शरीर और क्षुधा पर नियंत्रण करके खुशहाल जीवन जी सकते है।
प्रतिदिन भोजन करने से हमारे शरीर को कार्बोहाइड्रेट मिलता है, कार्बोहाइड्रेट दो रूप मे शरीर के अंदर मौजूद रहता है, प्रथम “ग्लूकोस” (रक्त मे प्रवाहित होता रहता है) और द्वितीय “गलाइकोजेन” (पेशियो और यकृत मे संचित रहता है), उपवास से जब रक्त का ग्लूकोस खत्म हो जाता है तब संचित ग्लाइकोजेन ग्लूकोस मे परिणत  (बदलकर) होकर रक्त मे जाता रहता है।
रक्त मे उपलब्ध ग्लूकोस के खत्म हो जाने के बाद शरीर यकृत मे संचित वसा से ऊर्जा प्राप्त करता है, फिर ‘यकृत मे उपलब्ध वसा’ रासायनिक प्रतिक्रियाओ मे वसाम्ल और ऐसिटो-ऐसीटिक-अम्ल मे परिवर्तित होकर रक्त मे प्रवाहित होते हुये शरीर को उष्मा प्रदान करती है,आठ से दस दिन मे जब वसा शरीर मे खत्म हो जाती है, तब शरीर अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिये प्रोटीन का उपयोग करता है।
शरीर के कोमल भाग का प्राय: तीन चौथाई अंश प्रोटीन से बना हुआ रहता है, उपवास की अवस्था मे यही प्रोटीन एमिनो-अम्ल मे परिवर्तित होकर रक्त मे प्रवाहित होता है, शारीरिक ऊतको (Tissue) से प्राप्त एमिनो-अम्ल के मुख्य दो कार्य है {(1) अत्यावश्यक अंगो को सुरक्षित रखना और (2) रक्त मे ग्लूकोस की अपेक्षित मात्रा को स्थिर रखना}। क्योकि प्रोटीन नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ होते है और जब शरीर के प्रोटीन को उपर्युक्त काम करने पड़ते है, तब मूत्र मे नाइट्रोजनीय अंश बढ़ जाता है और जब उसे बाहर निकालने मे वृक्क असमर्थ होते है,तो वह अंश रक्त मे जाने लगता है और व्यक्ति मे मूत्ररक्तता (यूरीमिया) की दशा उत्पन्न हो जाती है,इससे व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।
रोजा़ के दौरान मुसलमान सुबह भोर मे भोजन ग्रहण करते है जिसे “सहरी’ कहते है, फिर सूर्यास्त के बाद “इफ्तार” मे बड़ी संख्या मे खजूर और कार्बोहाइड्रेट भरे फलो का सेवन करते है जिससे शरीर मे कार्बोहाइड्रेट की स्थिति दयनीय नही होती है,एक माह तक इस प्रक्रिया के चलते रहने से मूत्र मे कीटोन की संख्या भी अधिक नही बढ़ती है और कैंसर जैसी बीमारियो का कारण बनने वालो अनावश्यक प्रोटीन से भी छुटकारा मिल जाता है,जिससे व्यक्ति का जीवन दांव पर भी नही लगता है और गंभीर बीमारियो से छुटकारा मिलने की संभावना भी बढ़ जाती है।
रोज़ा का समाजशास्त्र की दृष्टि से विश्लेषण करे, तो यह “सहभागी  अवलोकन के सिद्धांत” का प्रयोगिक रूप है,जिसके अंतर्गत किसी समाज विशेष के दुख-दर्द एवं परेशानियो को समझने के लिये, उनके साथ उनके जैसा ही जीवन गुज़ारना होता है,तभी उनकी परेशानियो से भलिभांति परिचित होकर उनका  व्यवहारिक उपचार किया जा सकता है,इसलिये महात्मा गांधी दलितो की बस्ती मे रहकर उनके कष्टो को महसूस करते थे।
सर्वप्रथम मुसलमानो को रोज़ा रखवाकर उन्हे भूख से उत्पन्न कष्ट और पीड़ा को समझने का मौका दिया जाता है, ताकि वह अपने उन भाइयो का दुख-दर्द महसूस करे जिन्हे दो वक्त की रोटी भी प्राप्त नही होती है, उनका दु:ख-दर्द कैसा होता होगा?
फिर भूख की पीड़ा सहने के बाद इफ्तार करते वक्त भोजन के आनंद की अनुभूति करवाकर उन्हे समझाया जाता है,कि उस भूखे भाई को तुम्हारे उपहार (इफ्तारी) देने से कितना आनंद प्राप्त हुआ होगा?
{अबु हुरैरा ने सुनाया, कि
“जब वे भूख से बेहाल थे, तो पैगंबर साहब ने उन्हे एक खजूर दी”।
(अल-तिर्मिदी संख्या 5255)}
{अबु तलहा ने सुनाया, कि “जब हमने पैगंबर साहब से भूख लगने की शिकायत करी और अपने कपड़े उठाकर अपने पेट के उपर बंधा हुआ पत्थर दिखाया,तब पैगंबर साहब ने अपने कपड़े उठाकर अपने पेट पर बंधे हुये दो पत्थर दिखाये”।
(अल-तिर्मिदी संख्या 5254)}
जंग-ए-खंदक के दौरान सहाबा खाई खोदने मे दिन भर व्यस्त रहते थे,जिस से भारी थकावट होती थी और उस समय मुसलमानो के पास अनाज की बहुत कमी थी,इसी कारण एक दिन सहाबा तल्हा ने पैगंबर साहब से शिकायत करी,’वह इतने भूखे है कि उन्हे पेट पर पत्थर बांधना पड़ रहा है’,तब पैगंबर साहब ने अपना कुर्ता ऊपर उठाकर उनको दिखाया,कि पैगंबर साहब के पेट पर दो पत्थर बंधे हुये थे।
अरबो मे परंपरा थी कि जब वह भूख से बेहाल हो जाते तो पेट पर पत्थर बांध लेते थे,क्योकि भूख से मांसपेशियो मे सिकुड़न आने लगती है और मनुष्य को सीधा खड़ा होने मे कठिनाई होती थी,लेकिन अगर पेट पर पत्थर बंधा हो तो मनुष्य सीधा खड़ा हो सकता है।
यद्यपि कुछ मुसलमान विद्वानो का मत है,कि यह जंग-ए-खंदक की घटना नही है,बल्कि एक यात्रा के दौरान का प्रसंग है, किंतु हर स्थिति मे यह घटना समाजशास्त्र के “सहभागी अवलोकन” के सिद्धांत की कसौटी पर खरी उतरती है,क्योकि इस्लाम हमेशा यह शिक्षा देता है,कि अगर आप पीड़ित, शोषित और वांचित के दर्द का एहसास करेगे, तो ही आप गंभीरता से समाज की समस्याओ का व्यवहारिक समाधान खोज सकेगे।
{अबू हुरैरा ने बताया, पैगंबर ने कहा; “यदि आप मे से कोई एक नमाज़ मे इमामत करे (प्रार्थना मे नेतृत्व करे), तो उसे (प्रार्थना) आसान (सरल/सहज) कर दे, उन मे (नमाज़ियो मे) कमज़ोर, बीमार और बुजुर्ग भी है। यदि आप मे से कोई खुद से (अकेले) प्रार्थना करता है, तो जब तक वह चाहे (उसकी इच्छा हो), उसे प्रार्थना करने दे”।
(सही बुखारी संख्या 671)}
लियो टॉलस्टॉय जैसे महान समाज शास्त्री अपने हाथ से पानी नही पीते थे,बल्कि उनको पानी पिलाने के लिये नौकर तैनात रहते थे, जबकि पैगंबर साहब दूसरो को वही कार्य करने के लिये कहते थे,जो वे स्वयं कर सकते थे,पैगंबर साहब के बाद इस परंपरा को सच्चे खलीफा और पैगंबर साहब के परिवार (अहल-ए-बैत) ने बख़ूबी अंजाम दिया।
पैगंबर साहब के बाद खलीफाओ ने बेहद सादगी से जीवन गुज़ारना शुरू किया, एक बार दूसरे सच्चे खलीफा उमर से मिलने रोमन साम्राज्य का एक दूत आया,तो एक वरिष्ठ मुसलमान उस दूत को एक छोटे से बाग़ीचे के दरवाजे पर यह कहते हुये छोड़कर चला गया,कि “अंदर खलीफा मौजूद है”।
दूत बाग़ीचे के अंदर घुसा तो उसे सिर्फ एक आदमी दिखाई दिया जो पुराने पैबंद लगे हुये कपड़े पहने था और एक ईट के ऊपर सर रखकर ज़मीन पर सो रहा था।दूत को लगा कि यह बुज़ुर्ग बग़ीचे का माली होगा,फिर वह बाहर आकर उस मुसलमान अधिकारी से बोला कि; “मैं अंदर चारो तरफ खलीफा को ढूंढता रहा, लेकिन मुझे माली के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति दिखाई नही दिया, तुम्हारे खलीफा कहाँ है?”
तब मुसलमान अधिकारी ने मुस्कुराते हुये कहा, कि “वही हमारे खलीफा है”।रोम का दूत हैरान रह गया, वह बोला कि “जब तुम्हारा खलीफा इतनी कुर्बानी देने वाला है, तो ऐसी कौम को विश्व विजेता बनने से कौन रोक सकता है?”।
खलीफा उमर रोज़ रात को भेष बदलकर अपने शहर मे घूमते थे,कि कही कोई व्यक्ति भूखा-प्यासा या परेशान तो नही है?
कि कही ऐसा ना हो कि मरने के बाद अल्लाह मुझसे हिसाब मांगे कि मैं पत्थर के अंदर मौजूद कीड़े को भी  भोजन देता हूं, लेकिन जब मैंने तुम्हे एक छोटे से राज्य का सेवक (शासक) बनाया, तो तुम्हारे शासन काल मे अमुक व्यक्ति भूखा कैसे सो गया?
खलीफा उमर एक रात भेष बदलकर घूम रहे थे, तब एक अल्पसंख्यक भीख मांगता हुआ नज़र आया, खलीफा ने उससे पूछा; कि “तुम तो स्वस्थ व्यक्ति हो, तो फिर क्यो भीख मांग रहे हो?”
उसने कहा; “मै मेहनत करके दो वक्त की रोटी खा लिया करता था, किंतु मेरे शासक ने मेरे ऊपर जजि़या लगा दिया है। जिसका भार मैं सह नही सकता और अब मुझे जज़िया देने के लिये भीख मांगना पड़ रहा है”।
दूसरे दिन खलीफा उमर ने दरबार मे आकर घोषणा करी, कि “जज़िया उसी व्यक्ति के ऊपर लगेगा, जिसकी जज़िया देने की क्षमता हो”,तब से यह नियम आज तक चालू है।
तीसरे खलीफा उस्मान बहुत धनी परिवार से संबंध रखने वाले व्यापारी थे,किंतु खलीफा बनने के बाद उन्होने बेहद सादगी के साथ जीवन जीना शुरु कर दिया,क्योकि उन्हे भी यही डर था कि अल्लाह उनसे यह ना पूछ ले कि तुम्हारे शासन काल मे कोई व्यक्ति भूखा-प्यासा कैसे सो गया?
चौथे खलीफा अली का जीवन बेमिसाल था, वह जीवन भर बहुत थोड़ा से भोजन का सेवन करते और पुराने तथा पैबंद लगे कपड़े पहना करते थे,पैगंबर साहब ने अपनी लाडली बेटी बीवी फातमा की शादी खलीफा अली से करी थी,बीबी फातमा को शादी के दिन जो दुल्हन वाले कपड़े पहनाये गये थे, उन शादी के कपड़ो मे भी पैबंद लगा हुआ था।
इस्लाम फटे-पुराने कपड़े पहनने को प्रोत्साहित नही करता है, बल्कि इस्लाम उल्टे और फटे-पुराने कपड़े पहनने को हतोत्साहित करता है। लेकिन इस्लाम दूसरो के दर्द का एहसास करने के लिये उन जैसा सादगी भरा जीवन जीने को प्रेरित करता है,इसलिये खलीफा के ऊपर साधारण जीवन जीने का दबाव होता है,किंतु साधारण नागरिक को इस्लाम स्वच्छ रहने, शरीर को अच्छा आकार देने, अच्छे वस्त्र पहनने और खुशबू लगाने को प्रोत्साहित करता है।
{जाबिर इब्ने अब्दुल्ला ने सुनाया, कि पैगंबर साहब हमारे यहां पधारे और एक अव्यवस्थित (वेशभूषा वाला) व्यक्ति देखा, जिसके बाल अस्त-व्यस्त थे। उन्होने कहा; “क्या इस आदमी को अपने बालो को संवारने के लिये कुछ नही मिला था?” उन्होने एक और आदमी को गंदे कपड़े पहने हुये देखा और कहा; “क्या इस आदमी को अपने कपड़ो को धोने के लिये कुछ नही मिला था?”
(सुनन अबू दाऊद, पुस्तक 32, संख्या
4051)}
{अबुल एहवाज़ अौफ इब्ने मलिक ने सुनाया, मैं एक घटिया लिबास (परिधान) पहनकर पैगंबर के पास आया और उन्होने (मेरे लिये) कहां; “क्या आपके पास कोई संपत्ति है?
मैने जवाब दिया; “हाँ”।
उन्होने पूछा; “किस तरह की है?”
मैनेे कहा; “अल्लाह ने मुझे ऊंट दिये है, भेड़, घोड़े और दास भी”।
उन्होने फिर कहा; “जब अल्लाह आपको संपत्ति देता है, तो अल्लाह के एहसान और सम्मान की निशानी को (लोगो को) दिखने दो”।
(सुनन अबू दाऊद, पुस्तक 32, संख्या 4052)}
{अनस इब्ने मलिक ने सुनाया; राजा ‘ज़ू यज़ान’ ने पैगंबर को कपड़े का एक सूट पेश किया, जिसे उन्होने तैतीस ऊंटो या तैतीस ऊंटनियो के बदले खरीदा था। उन्होने (पैगंबर साहब) इसे स्वीकार कर लिया।
(सुनन अबू दाऊद संख्या 4023)}
{अनस इब्ने मलिक ने सुनाया, कि रोम के राजा ने पैगंबर साहब को एक फर लगा हुआ रेशमीन ज़री-बूटे वाला जामा (गाऊन) पेश किया और उन्होने (पैगंबर साहब) इसे पहना। जामा (गाउन) पहनते वक्त जिस तरह से उनके (पैगंबर साहब) हाथ हरकत कर रहे थे, वह दृश्य आज भी मेरी आँखो के सामने है। फिर उन्होने इसे जाफर के पास भेज दिया जिसने उसे पहना और उसके बाद मेरे पास आया।
(सुनन अबू दाऊद नंबर 4036)}
इस्लाम हमेशा अच्छी वेशभूषा धारण करने के लिये प्रोत्साहित करता है, किंतु यह बात ध्यान रखना चाहिये, कि आपकी वेशभूषा के कारण गरीब लोगो के अंदर किसी तरह की हीन भावना नही आना चाहियेइसलिये अगर आप गरीबो को वस्त्र दान नही कर सकते है,तो आपको भी सादगी भरा जीवन जीना चाहिये।
{इब्ने अब्बास ने बताया, कि पैगंबर ने कहा, “वास्तव मे, आस्तिक (मुस्लिम) हर स्थिति मे एक अच्छे आकार मे है, वह (हमेशा) अल्लाह सर्वशक्तिमान की प्रशंसा करता है, जब तक कि उसकी आत्मा उसके शरीर से बाहर निकाल (नही) दी जाती है”।
(मुसनद अहमद 2475 नंबर)}
उपरोक्त हदीस मे वर्णित “आकार” को अधिकांश धर्मगुरु अध्यात्मिक भावार्थ मे विश्लेषित करते है,किंतु यहां तात्पर्य सुडौल शरीर अथवा शरीर की देखरेख से है,क्योकि इस्लाम हमेशा चुस्त-दुरुस्त अथवा शारीरिक रूप से फिट रहने की शिक्षा देता है, इसलिये हमे युवाओ को अपने शरीर को अच्छा आकार देने के लिये वेटलिफ्टिंग जैसे व्यायाम करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।

 

इस्लाम सुडौल शरीर और अच्छी वेशभूषा धारण करने का आदेश देकर “व्यक्तित्व विकास” (Personality Development)को प्रोत्साहित करता है,किंतु “व्यक्तित्व निर्माण” के बाद मनुष्य मे ‘घमंड’ और ‘ईर्ष्या’ जैसे विकार पैदा हो जाते है, इसलिये इस्लाम बुराइयो से बचने के लिये हमेशा इंद्रियो पर नियंत्रण करने का आदेश देता है,वर्ष मे एक महीना (रमज़ान) इंद्रियो पर नियंत्रण के अभ्यास को समर्पित किया जाता है।

एज़ाज़ क़मर (रक्षा, विदेश और राजनीतिक विश्लेषक)
क्रमशः

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