तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,
पढ़ रहा हूँ रेत पर,
मिटते मिटाते लेख, जो बाँचे समय ने।
है समय अदृश्य लेकिन दृश्य है अनुपम रचाता।
सिर्फ़ साक्षी है मगर, इतिहास है इसमें समाता।।
यह बिना आवाज़ के ही शून्य में है गीत गाता।
यह नचाता है, मिटाता है, हँसाता है, रुलाता।।
है समय अद्भुत, अनोखा, कौन इसको जान पाया।
एक में निर्माण, दूजे हाथ में विध्वंस लाया।।
युद्ध भी यह, बुद्ध भी यह, नीर भी है, ज्वाल भी है।
आदि भी है, अंत भी है, जन्म भी है, काल भी है।।
हम समय से हैं गुज़रते, या समय हम से गुज़रता।
हम विचरते हैं समय में, या समय हम में विचरता।।
हम उपस्थित विश्व में या, विश्व है हममें उपस्थित।
कौन है किसका समर्पण, कौन है किसको समर्पित।।
कल समय की डाल पर, नूतन सुमन फिर से खिलेंगे।
शुन्य से उपजे कभी हम, शून्य में फिर जा मिलेंगे।
यह ज़माना आज का है, कल नया फिर दौर होगा।
हम जहाँ हैं आज, कल उस ठौर कोई और होगा।।
मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,
लिख रहा हूँ रेत पर,
चलते चलाते लेख, बाँचेगा समय जो।