तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
कहानी
हवा का एक तेज़ झोंका आया और खिड़की के नीले पर्दों को लहरा गया । कांच का फूलों का गुलदस्ता परदे से टकरा का नीचे गिर पड़ा। कांच बिखर गया फर्श पर । एक सम्मोहन से जैसे जागा मैं – विचारों की भीड़ में पहली बार मुझे यह अहसास हुआ कि मैं अकेला हूँ – बहुत अकेला । दूर तक चले हुए सफ़र में अब तक तो मेरे पांवों के निशान भी शेष नहीं हैं … समय की आंधी ने सब कुछ मिटा दिया है, सब कुछ समाप्त कर दिया है।
मैं नहीं उठा कांच चुनने को – सिर्फ डूबते हुए अहसास की सतह पर आ गया । बोझिल आँखों को उठाया, ऐसा लगा – जैसे बहुत भार आन पड़ा हो पलकों पर । देखा उसकी ओर – वह मेरी ओर पीठ किये बैठी थी । चुपचाप अपलक रूप से शून्य को निहार रही थी । विश्वास था – गालों पर आंसुओं की रेखाएं अवश्य बनी हुई होंगी किन्तु अब उन आँखों में और पिघलने की शक्ति नहीं रह गयी होगी । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ह्रदय की आग आँखों से धुआं बन कर निकल नहीं पाती है – पथरा जाती हैं आँखें- फटी हुईं, फैली हुईं सी आँखें । यह आग अन्दर ही अन्दर ज्वालामुखी बन जाती है और जब यह ज्वालामुखी फूटता है तो शरीर रेत के उस कच्चे घरौंदे की तरह बिखर जाता है जिसका अस्तित्व तक सागर तट पर बड़ी-छोटी परिधि बनाता सदैव के लिए निगल जाता है ।
… ‘वह’ रो रही थी – पिछले तीन दिनों से निरंतर रो रही थी किन्तु आंसुओं की भी तो एक सीमा होती है ।
मुझे याद है- एक समय था जब मैं ‘उसकी’ नीली आँखों में एक कतरा आंसू देखकर बेचैन हो जाया करता था, दुःख से अन्दर ही अन्दर पिघल उठता था, किन्तु आज … आज मैं स्वयं ही चाहता था कि ‘वह’ इतना रोये, इतना रोये कि …..
शीशे का गुलदस्ता चूर-चूर होकर बिखरा पड़ा था फर्श पर किन्तु ‘उसमें’ किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं हुयी… वह पूर्ववत शांत बैठी रही और शून्य को निहारती रही । कोई और समय होता तो ‘वह’ शांत नहीं रह सकती थी । रोती जाती और कांच के टुकड़े चुनती जाती । इस गुलदस्ते को ‘उसके’ लिए विभु ने स्वयं भेजा था विदेश से। कलात्मक रूचि का धनी विभु … माँ से विरासत में पाए उसकी बिल्लौरी आँखें सदैव सुन्दरता की खोज में रहती थीं । जीवन के प्रति उसका अलग ही दृष्टिकोण था, अलग ही दर्शन। विभु कलाकार था और प्रत्येक कलाकृति के मूल्यांकन का उसका अपना ही पैमाना था । अपनी माँ की रूचि का भी पूरा ध्यान था उसे और शायद इसीलिए उसने अपनी माँ के लिए यह सुन्दर शीशे का गुलदस्ता भेजा था । ‘उसने’ भी अपने बेटे की इस भेंट को वर्षों से अपने कलेजे से लगा रखा था, किन्तु आज…आज वह निहायत खूबसूरत गुलदस्ता कांच के टुकड़ों में परिवर्तित हो गया था और एक सिहरन भी न उठी उसके शरीर में । मुझे लगा- मेरा बदन काँप कर रह गया हो – जैसे एक ठंडी लहर ऊपर से नीचे तक तैर गयी थी। ओह …कितनी जड़ हो गयी है ‘वह’ – बिलकुल किसी मूर्ति की तरह …
“विभा !” पुकारा मैंने, किन्तु मेरी ही आवाज़ जैसे मेरे गले में फंस कर रह गयी … कोई गोल वस्तु कंठ में अटक गयी ।
फिर पुकारा, कुछ ऊंचे स्वर में … किन्तु कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी।… “विभा ! मेरी ओर देखो विभा ! मैं जानता हूँ कि माँ का ह्रदय शीशे के महल की तरह चूर-चूर हो जाता है जब उसके बेटे पर कोई पत्थर आकर पड़ता है । मैं यह भी जानता हूँ कि अब कुछ नहीं बचा, कुछ नहीं रह गया … सब समाप्त हो गया है …लेकिन…लेकिन….
वह चुप थी । संभवतः मेरे शब्द उस तक नहीं पहुँच रहे थे । मैं स्वयं ही अपने शब्दों को अपनी ही जुबान पर घुलता हुआ सा महसूस कर रहा था … और… और शायद उसने भी एक अदृश्य दीवार बना रखी थी अपने चारों ओर … उसने शायद स्वयं को स्वयं में ही कैद कर लिया था । पिछले तीन दिनों से वह भूखे-प्यासे इसी खिड़की के पास बैठी रही थी । उस खिड़की के पास जिससे वह छोटे से विभु के स्कूल से लौटने की प्रतीक्षा करती थी, और जिस दिन उसे लौटने में ज़रा सी भी देर हो जाती थी, उसकी आँखों के कोरों पर तैर आये नन्हें-नन्हें अश्रुकणों को अपने आँचल से पोंछती जाती और जैसे ही विभु आता, उसे सीने से लगा कर रोती हुयी पूछती थी – “कहाँ रह गया था रे ! अपनी माँ को क्यों रुलाता है ?”
आज भी वह उसी खिड़की के पास बैठी थी – निहार रही थी शून्य में – किन्तु यह असंभव की प्रतीक्षा थी …असंभव की प्रतीक्षा …
“विभा !” फिर पुकारा मैंने, तुम नहीं जानती, कितना बड़ा दंड है इस संसार में पुरुष होना। तुम माँ हो, तुम रो सकती हो, अपना दर्द मुझसे बाँट सकती हो, लेकिन मैं? … एक पुरुष हूँ …एक अभागा बाप … मैं किससे अपना दर्द बांटू … मैं कैसे रो पडूँ … कितने बंधन हैं मुझ पर … कितनी सीमाएं हैं मेरी ! मैं जनता हूँ – बेटे के दुःख में माँ का ह्रदय फट जाता है लेकिन ज़रा उस बाप के ह्रदय के बारे में भी सोचो जो फटना तो चाहता है लेकिन फट नहीं पाता … उस ज्वालामुखी के दर्द का भी अनुमान लगाओ जो टूटना तो चाहता है लेकिन फूट नहीं पाता है।”
किन्तु वह चुप थी। निश्चल … उसी प्रकार कुर्सी से पीठ टिकाये खिड़की से बाहर झांक रही थी।
अपने दोनों हाथों से चेहरा छिपा लिया मैंने । चेहरे की झुर्रियों का स्पर्श … अचानक ही जैसे कैक्टस की तरह ढेर सारी झुरियों का जाल चेहरे पर बिछ गया था … पहली बार महसूस हुआ कि कितना बूढा हो चुका हूँ मैं। जीवन की कितनी यात्रा तय कर आया हूँ किन्तु सब निरर्थक … सब व्यर्थ। रेगिस्तान में भटकता रहा मैं – प्यासा … पागल सा … और जिस जलधारा के पीछे जीवन भर भागता रहा, जीवन के अंतिम पड़ाव में उसकी रेत मुट्ठी में भर उसे ताकते रहने की सिवा क्या रह गया था। जलती आँखों और ठंडी निश्वासों की पूंजी का क्या व्यापर करता अब मैं …. सिर्फ चलते रहना कोई यात्रा नहीं होता …. कितना अकेला हूँ मैं …. कितना असुरक्षित – कितना डरा हुआ …
दो मोटे-मोटे आंसू मेरी हथेलियों पर जम गए। आँखों की जलन और बढ़ गयी।
विभा से जब मेरा विवाह हुआ था, तब मैं एक छोटे से प्राइमारी स्कूल का अध्यापक था। वे दिन स्वतंत्रता संग्राम के दिन थे। सब कुछ याद है मुझे … एक-एक क्षण … एक-एक पल …। मेरा उससे प्रथम परिचय एक कला प्रदर्शनी में हुआ था। सौम्यता एवं सौन्दर्य की उस प्रतिमूर्ति को मैं अपलक निहारता ही रह गया। नीली, झील सी गहरी आँखों में खो गया मैं। मैं उस प्रदर्शनी में मन्त्र-मुग्ध होकर सम्मोहित सा उसके पीछे ही पीछे चलता रहा था। सभ्यता एवं शिष्टता के झीने परदे से अब मैं इस घटना को निहारता हूँ तो स्वयं को बहुत अशिष्ट एवं असभ्य नज़र आता हूँ। किन्तु अब मैं सोचता हूँ तो ऐसा लगता है कि जीवन में एक समय-बिंदु ऐसा भी है जहाँ व्यक्ति आकार, विचार व संस्कार रहित हो जाता है। सभ्यता और शिष्टता को मापने के सारे फीते अपने आप में ही उलझ कर रह जाते हैं। … तीन दिन तक चली थी वह प्रदर्शनी और मैं तीनों ही दिन न जाने किस भावना से अविभूत होकर उस प्रदर्शनी में पहुँचा था और मुझे आश्चर्य तो तब हुआ था जब मैंने तीनों ही दिन विभा को वहां पाया था। विभा कला की छात्रा थी तथा कला के अध्ययन हेतु वहां अपनी अन्य सहेलियों के साथ आया करती थी । … तीन दिन में हम बहुत करीब आ गए थे।
फिर हमारी मुलाकातें प्रदर्शनी कक्ष से बाहर निकल आयीं । कभी पार्क में, कभी नदी के किनारे और कभी रेस्टोरेंट में मिलने लगे हम। एक दिन ऐसे ही क्षणों में मैंने विवाह का प्रस्ताव रखा था उसके सामने और उसने सहज ही स्वीकार कर लिया था। कितनी प्रसन्नता हुयी थी मुझे। ऐसा महसूस हुआ था – जैसे नीले बादलों की गोद में एक पंछी बनकर अपने चांदी से सफ़ेद पंख लहराता उड़ा जा रहा हूँ मैं।
मेरे माता-पिता इस विजातीय विवाह के लिए तैयार नहीं थे किन्तु विभा की बूढी माँ प्रसन्न थी इस सम्बन्ध से। मैंने विद्रोह कर दिया अपने घर वालों के विरुद्ध और एक मंदिर में चंद मित्रों की उपस्थित में विभा की मांग में सिन्दूर भर दिया। उसे अपनी दुल्हन बना कर घर लाया था तो पिताजी ने घर के अन्दर घुसने भी नहीं दिया। दरवाजे से ही लौटा दिया। उन्होंने कहा था, “मैं समझूंगा कि मेरा एक बेटा मर गया। यह घर अब तुम्हारा घर नहीं है।” घर के दरवाजे सदैव के लिए बंद हो गए थे मेरे लिए। कभी-कभी ऐसा भी होता है – जब एक आँख में उजाला होता है, ठीक तभी दूसरी बुझ जाती है। मैंने एक छोटा सा मकान खोज लिया था। खोज क्या लिया था – मेरे ही एक मित्र का मकान था। एक कमरा हमें भी मिल गया था रहने के लिए। फिर हम एक अच्छा सा मकान देखकर उसमें शिफ्ट हो गए।
विभा प्रसन्न थी … बहुत प्रसन्न। किन्तु कोई दुःख यदि उसे था तो यही कि मेरे माता-पिता ने उसे स्वीकार नहीं किया था। यह दुःख, यह पश्चाताप उसे हर क्षण – हर पल सालता रहा है।
बापू की वाणी पूरे देश में गूँज रही थी उन दिनों। ब्रिटिश साम्राज्य का अंत निकट दिखाई पड़ने लगा था। मैं भी नवयुवक था, देशप्रेम का जोश मुझमें भी था। बापू के आंदोलनों में हिस्सा मैंने भी लिया। कई बार जेल गया … लाठियां भी खाईं … किन्तु विभा ने उस लड़ाई में भाग लेने से मुझे कभी नहीं रोका। घायल होकर आता था तो वह हल्दी का लेप लगाती जाती थी और रोती जाती थी। जेल में बंद हो जाता था तो गिन-गिन कर दिन काटती थी किन्तु कभी कुछ नहीं कहा उसने। कभी-कभी तो मैं स्वयं दंग रह जाता था उसकी सहनशीलता और धैर्य देखकर ।
फिर मुझे विश्वविद्यालय में लेक्चररशिप मिल गयी थी। एक सुन्दर सा घर भी मिला था विश्वविद्यालीय प्रांगण के आवासीय क्षेत्र में। दुःख के बादल अब छंटने लगे थे। फिर सौम्या, मेरी बेटी का जन्म हुआ। हमें तो प्रसन्नताओं का खजाना ही मिल गया था। हम हाथों-हाथ उसे लिए रहते थे। विभा के जीवन में बहार आ गयी। वह सारा दिन अपनी बेटी से ही खेलती रहती। धीरे-धीरे दिन बीतते रहे। मैं जब यूनिवर्सिटी से लौटता तो विभा मुझे बताती, “सौम्य के पापा ! आज सौम्य ने “पापा” कहना सीख लिया … आज “माँ” कहना सीख लिया।”
…सौम्या तीन वर्ष की हो गयी थी जब हैजा महामारी बनकर फैला था। हैजा आंधी बनकर आया और तूफ़ान बनकर चला गया किन्तु हमसे सब कुछ छीन ले गया। हैजा सौम्या को निगल गया और हम अवाक खड़े ही रह गए। विभा न जाने कितने दिनों तक रोती रही थी। उसकी नीली आँखों के नीचे स्याह निशान बन गए थे। दुःख की प्रतिमूर्ति बनकर रह गयी थी विभा।
… समय का मरहम हर घाव को भर देता है। एक लम्बा समय बीत गया हमें अकेला जीवन जीते हुए। इस बीच मैं एक बार अपने घर भी गया। ज्ञात हुआ – माँ का स्वर्गवास हो गया था। पिताजी का आरोप था कि उनकी मृत्यु का कारण मैं था और वे मेरा मुख भी देखना नहीं चाहते थे। मैं लौट आया – निराश, थका हुआ । विभा ने बड़ी उत्कंठा से पूछा, “क्या माताजी और पिताजी ने मुझे स्वीकार कर लिया है ?” मैंने कहा था, “माँ नहीं रहीं !…और पिताजी….विभा, अच्छा होगा कि हम इस अध्याय को सदैव के लिए बंद कर दें।” कितनी निराश हुयी थी वह … कितनी दुखी … यह केवल मैं ही जान सकता था … किन्तु वह कुछ न बोली। एक प्याला चाय थमाते हुए मुझसे धीरे से कहा था, “आप आराम कीजिये, आप थक गए होंगे। मेरी चिंता न करें … आपके साथ मुझे हर सुख है। आपका साथ रहे तो मुझे स्वर्ग की भी इच्छा नहीं है।” … कितना मूक हो गया था मैं। कुछ न बोल सका था – बस, उसे अपलक देखता ही रह गया।
समय पंखा लगा कर उड़ रहा था। कुछ वर्ष और बीत गए। फिर जन्म लिया था वैभव ने – हमारा विभु। जीवन में फिर मधुमास आ गया था। विभु का जन्म एक बड़े आपरेशन द्वारा हो सका था और डाक्टर ने बताया था कि अब विभा कभी माँ नहीं बन सकती है। विभा को जब यह ज्ञात हुआ तो वह हंसती हुयी बोली –“मेरा विभु ठीक रहे। मैं एक बेटे पर ही इतना प्यार लुटा दूँगी कि और बेटों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।” कितना आनंद था, कितना प्यार और कितनी प्रसन्नता। कभी-कभी भावनाएं इतनी ऊँची हो जाती हैं कि शब्द नीचे रह जाते हैं। सब कुछ शब्दहीन … किन्तु फिर भी सम्पूर्ण। मैंने पहली बार समझा था – क्या है यह शब्दहीन धरातल … कैसी होती है यह गूंगी भाषा … इस अनलिखे में कितना लिखा होता है … मैं तो एक लेक्चरार के रूप में आज तक केवल शब्दों से ही खेलता आया था। अब जाकर मुझे अहसास हुआ था कि जहाँ शब्दों की सीमा और उनका सामर्थ्य समाप्त होता है, प्यार की भाषा वहीँ से शुरू होती है। सब कुछ कितना सुन्दर था … कितना प्यारा … कितना सम्पूर्ण …
फिर हवा का एक झोंका आया था और खिड़की के नीले परदे फिर लहरा उठे थे। ठंडी हवा मुझे कंपा गयी थी। विचारधारा फिर टूट गयी थी … आंसू सूख गए थे किन्तु मेरे हाथ अभी भी चेहरे की झुर्रियों को टटोल रहे थे।
सिर उठाया मैंने। देखा उसकी ओर – वह पूर्ववत ही निश्चेष्ट, निश्चल बैठी थी। उसी खिड़की से बाहर निहार रही थी जहाँ वह नित्य बैठकर विभु की राह तकती थी। न जाने … अब उसे किसकी प्रतीक्षा थी।
“विभा !”, मैंने पुकारा किन्तु कोई प्रभाव नहीं हुआ।
कितना विवश था मैं, कितना मजबूर, कितना असहाय। किसका सहारा लेता। … कमरे की छत रंग-बिरंगे कागजों व गुब्बारों से सजी हुई थी। जगह-जगह मैंने और विभा ने चंपा की लड़ियाँ स्वयं गूँथ कर लटकाई थीं। सामने बीच दीवार में विभु का बड़ा सा हँसता हुआ रंगीन चित्र लगा हुआ था। कितनी भोली-भाली और निश्छल हंसी। ठीक वैसी ही जैसे बचपन में हमारे आँगन में गूंजा करती थी। मेरे कानों में फिर वैसी ही चाँदी की घंटियों सी खिलखिलाहट गूंजने लगी थी …
धीरे-धीरे विभु बड़ा होने लगा। विभा तो उपर हज़ार जान से निछावर रहती थी। कभी-कभी तो मुझे ईर्ष्या भी हो उठती थी विभु से। मेरा भी ध्यान कम रखती थी विभा। कभी-कभी मैं उससे हँसता हुआ कहता था –‘विभा ! कभी-कभी विभु के पापा का भी ध्यान कर लिया करो।” और वह हंसती हुई उत्तर देती थी – “विभु भी तो तुम्हारा ही रूप है। मैं तुम्हारा ही तो ध्यान रखती हूँ।” … कितना प्यार, कितना विश्वास और कितनी प्रसन्नता …
विभु एक साल का हो गया था। हमने उसकी वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मनाई थी। शहर के तमाम व्यक्तियों को आमंत्रित किया था। रात देर तक जश्न चलता रहा था। विभु के पास खिलौनों का ढेर लग गया था और हमारे पास खुशियों का।
दिन भर घर में इधर से उधर भागा करता था विभु और जहाँ वह आँखों से ओझल हुआ, विभा घबराई हुई भागती थी उसके पीछे। एक बार विभु बाहर गार्डन में निकल गया था। विभा घबराई हुई सी उसके पीछे भागी थी किन्तु तारों की बाड़ में पाँव उलझ जाने से वह नुकीले तारों पर ही गिर पड़ी थी। जगह-जगह चुभ गए थे नुकीले कांटें – खून भी निकला था लेकिन कोई परवाह न की उसने और झपट कर विभु को गोद में समेट लिया, “मेरा बेटा, मेरा विभु । क्यों भाग जाता है अपनी माँ को छोड़कर।” मैंने देखा था … कई जगह घायल हो गयी थी वह किन्तु जैसे उसे अपने ज़ख्मों का ख्याल ही नहीं था। मैं थोडा झुंझला भी उठा था उस दिन – “यह क्या पागलपन है विभा ?” वह रोते हुए बोली, “तुम इसे नहीं समझ सकते! तुम एक बाप हो, माँ नहीं।” फिर कुछ न बोल सका मैं। कुछ नहीं कर सका सिवाय उसके ज़ख्मों पर मरहम-पट्टी करने के। काफी दिनों में भर सके थे उसके घाव।
विभु और बड़ा हो गया था। अब स्कूल भी जाने लगा था। विभा उसे स्वयं स्कूल छोड़ने जाती थी और छुट्टी होने पर स्वयं वापस घर लाती थी। मैंने कई बार कहा भी, “तुम क्यों परेशान होती हो विभा। नौकरानी छोड़ आया करेगी विभु को।” तड़प कर बोली थी वह, “अभी उसकी माँ जिंदा है। उसे किसी सहारे की ज़रुरत नहीं है।” और फिर वह फूट-फूट कर रोई थी। बड़ी मुश्किल से मना सका था मैं उसे।
विभा का सारा जीवन ही विभु के इर्द-गिर्द केन्द्रित हो गया था। विभा और विभु – विभु और विभा। मैं जब यूनिवर्सिटी से लौटता था तो विभु घंटों मुझसे अपनी तोतली भाषा में बातें किया करता था। कभी-कभी अपनी ड्राइंग दिखाता था यद्यपि वह ड्राइंग किसी भी कोण से उस वस्तु की नहीं होती थी जिसका वह नाम लेकर बताता था किन्तु मैं सदा ही उसे उत्साहित किया करता था।
क्रमशः