तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
कहानी
लैंप का प्रकाश तीव्र कर दिया मैंने। प्रकाश की ज्योति स्थूलकाय हो वातावरण से चिपक गयी। कुछ विचित्र सा अनुभव कर रहा था मैं इधर कुछ दिनों से। प्रतीत होता था – दीमक सी लग गयी हो जीवन की पुस्तक में …. या पुस्तक के पृष्ठ चिंदी-चिंदी होकर हवाओं में उड़ रहे हों। वास्तव में जीवन ही कठिन है और जब दर्द का आवरण उस पर आ पड़ता है तो वह और भी कठिन हो जाता है। संघर्ष करता रहा हूँ अपने आप से ….संघर्ष? किन्तु संघर्ष भी क्यों कहूँ । दीवारों से सिर टकराना संघर्ष तो नहीं।
अब विचित्र कहने को कुछ भी नहीं हैं …क्योंकि सभी कुछ विचित्र है – अनचाहा, अनदेखा, अनसोचा।
देखा – कुछ भी न लिख सका था मैं। मेज पर फैला पृष्ठ कोरा ही था। सफ़ेद पृष्ठ पर कंपकपाता प्रकाश रेखाएं खींच रहा था। एक पल को महसूस हुआ – मानो मेरे दर्द ही पिघल कर बह गए हों उस पर। मेरा दुःख उस सफ़ेद कागज़ पर स्वयं बिखर गया हो।
कुछ लिखने का प्रयत्न करने लगा। प्रकाशक को रचना शीघ्र ही भेजनी थी वर्ना शायद इस माह की यह छोटी सी आमदनी भी ….. किन्तु क्या लिखूं ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। क्यों न स्वयं ही उतर जाऊं इन पृष्ठों पर …! किन्तु….और फिर यह किन्तु पृष्ठों पर चिपक गया।
अकेला नहीं था मैं। एक बूढ़े खांसते पिता थे, मृत्यु की घड़ियाँ गिनती बीमार माँ थी … एक बहन भी थी … जवानी तक पहुंची नहीं थी किन्तु अनुभवों ने पहले ही बूढा कर दिया था। … और … और कहते हैं – मेरे एक बड़े भाई भी हैं जो बहुत बड़े ऑफिसर हैं, एक भाभी भी हैं जो किसी करोडपति घराने में जन्मी हैं। न जाने कैसे उनका विवाह इस खानदान में हो गया। पैसा सदा चेहरे पर झलकता हैं उनके ….मानो रगों में लाल लहू नहीं, सुनहरा सोना बह रहा हो – तभी तो खून से, खून के रिश्तों से घृणा हो गयी है उन्हें।
पृष्ठ अभी भी कोरा ही रहा। कलम ही नहीं हिली… जाने कैसे बुत सा बन गया हूँ मैं आज …पत्थर की मूर्ति के समान … लेकिन पत्थर नहीं….मैं सोच रहा हूँ…वह सोचती भी नहीं।
प्रतीत होता है – अतीत के चित्र बिखर गए हों उस कोरे पृष्ठ पर। मैं तो बस दृष्टि ही गड़ा सका।
एक लम्बा अरसा गुज़र गया है … इस बीच जीवन की धारा ने कितने ही पड़ाव छोड़ दिए।
याद है मुझे … छोटा सा था मैं किन्तु नासमझ नहीं। …भैया छोड़कर चले गए थे … साथ में एक स्त्री भी थी … खूबसूरत … सफ़ेद बर्फ जैसी … किन्तु मुझे कोई खूबसूरती उसमें आज तक नज़र न आ सकी। मैंने उसकी आँखों में सदैव घृणा का तूफ़ान ही देखा है – अपने लिए … माँ के लिए … पिताजी के लिए …. और छोटी बहन अनु के लिए। उसकी बर्फ सी सफेदी में मुझे चांदी का अहसास होता है। शायद वह धन से ही बनी है ….. हाँ, शायद क्यों? …अवश्य। माँ कहती थी – उसे भाभी कहूँ मैं …। ‘भाभी!’ बड़ा सुन्दर शब्द लगता था पहले ये पर अब… अब तो सारे अर्थ ही बदल गए हैं …।
वही… मेरी ‘भाभी’ एक दिन एकाएक कह उठी थी – “मैं इस नर्क में नहीं रहने आई हूँ।…. मुझे इन यमदूतों से बड़ा डर लगता है। जिन्होंने न कभी ठीक से पहना हो, न कभी ठीक से खाया हो … वे भी भला कोई इंसान हैं? ‘तुम’ मेरे पिताजी के साथ ‘बिजनेस’ क्यों नहीं कर लेते। दस पांच लाख तो बड़ी आसानी से लगा देंगे तुम्हारे बिज़नस में।”…. और ‘तुम’ चुप रहा था। मैंने सुने थे ये ज़हरीले शब्द … एक बार नहीं … कई बार … प्राय: नित्य-प्रति ही। एक बार सोचा – कह दूँ, चले क्यों नहीं जाते भाई साहब … तुम्हारा मौन तुम्हारी स्वीकृति का परिचायक है ।” किन्तु चुप रहा! … मेरे मुझे महसूस हुआ था … ‘भाभी’ के ह्रदय में हमारे लिए पलने वाला घृणा का पौधा धीरे-धीरे बरगद बन रहा है। भाभी ने उस दिन ऊंचे स्वर में कहा था, “मैं इन जंगलियों के बीच नहीं रह सकती। न जाने किस दिन मिटटी का तेल उलट कर आग लगा दें। पिताजी का अहसान नहीं लेना चाहते तो न सही … इतने बड़े ऑफिसर हो … अच्छी खासी सैलरी पाते हो … कहीं अलग बंगला तो ले ही सकते हो।” … “हूँ!” कह उठे थे भाई साहब। प्रतीत हुआ – विचारों का धागा टूटा हो। ‘हूँ’ एक साधारण सा शब्द किन्तु कितने अर्थ लिए हुए …. कितना गहरा सा शब्द … कितने विचार समेटे हुए। दर्द सा हुआ था मन में और दृष्टि अनायास ही भाई साहब की ओर उठ गयी थी। देखा – उनके चेहरे पर कोई प्रतिरोध नहीं था। गहन सोच में थे वे। शायद … शायद पैसों की लम्बाई के आगे रिश्ते छोटे पड़ने लगे थे। ‘हूँ’ में क्रोध नहीं, गंभीरता थी या यूँ कहूँ – स्वीकृति की भूमिका … एक संक्षिप्त प्रस्तावना। पिता जी मौन थे, माँ चुप थी … बस कभी-कभी खांसती थी … बेचारी बहू के डर से मुंह में अपनी धोती का पल्ला ठूंसे रहती थी … कहीं निगोड़ी खांसी न आ जाये … लेकिन फिर भी कमबख्त आ ही तो जाती थी … और फिर एकाएक उस खूबसूरत बर्फ सी सफ़ेद औरत का मुंह खुल जाता था, “मरती भी तो नहीं है यह बुढिया। खांस-खांस के नाक में दम कर रखा है। हे भगवान् ! मुझे जीते-जी ही नरक में क्यों डाल दिया तूने। … किन्तु माँ चुप थी … नासमझ बहन अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देख रही थी … सब कुछ पूर्ववत था – सदैव की भांति … बस एक यह नामुराद शब्द ‘हूँ’ वातावरण को और अधिक स्तब्ध कर गया था।
पिताजी रिटायर हो चुके थे और अब तो झुर्रियां भी लटक आयीं थीं चेहरे पर। मुझे हमेशा ऐसा ही लगा कि वे मुझसे अधिक बड़े भाई साहब को चाहते हैं। सच भी है – बड़ा लड़का ही तो बुढ़ापे की लाठी होता है। मैं जब एक साधारण से स्कूल में पढता था … भाई साहब शहर के सबसे महंगे स्कूल में पढ़ रहे थे। मुझे नहीं याद कि भाई साहब ने एक दिन पहने हुए कपडे कभी दूसरे दिन भी पहने हों। उनकी हर आवश्यकता पूरी करने के लिए पिताजी प्राण-पण से एक हो जाते थे। घर में फाके होते रहे किन्तु भाई साहब स्कूल के परिधि से निकल कर कालेज के परिसर में पहुँच गए। खर्चे भी बढ़ गए। भाई साहब की पढाई का अंतिम वर्ष था जब पिताजी रिटायर हुए थे। घर की आर्थिक स्थिति और अधिक बिगड़ने लगी। भाई साहब की महंगी पढाई का भार वहन करने की हालत में न थे वे। फिर एक दिन मैंने सुना – पूर्वजों की ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा, जो पिताजी के नाम था, बेच दिया गया। भाई साहब की पढाई भी पूरी हो गयी। जिस दिन रिजल्ट निकला था, पिताजी तो ख़ुशी से जैसे नाचने ही लगे थे – जैसे उनकी कोई असाध्य तपस्या पूरी हो गई हो। जीवन में पहली बार मैंने उन्हें इतना प्रसन्न देखा था वर्ना घर की जिम्मेदारियों, माँ की शाश्वत बीमारी और दिन-प्रतिदिन बिगड़ रही आर्थिक स्थिति ने उन्हें हंसने का कभी अवसर ही नहीं दिया। माँ भी मुस्कराई थी … बहुत दिनों बाद …. बहुत वर्षों बाद।
भाई साहब ने नौकरी के ;इए आवेदन-पत्र भेजने प्रारंभ कर दिए। कई साक्षात्कारों में भी गए …. लेकिन नौकरी मिलना आजकल आसान नहीं है। बहुत दिनों तक भटकते रहे थे वे। फिर एक दिन वे बहुत ही खूबसूरत बर्फ सी सफ़ेद लड़की के साथ घर आये। आश्चर्य हुआ था मुझे उसे देखकर …शिष्टाचारवश हाथ जोड़ दिए। उपेक्षा के भाव से सिर हिलाया उसने और फिर घर में प्रवेश करते ही उसने विचित्र सा मुंह बनाया था, मानो कोई अचानक ही रौशनी के नगर से भटक कर अंधेरों के जंगलों में आ गया हो। अमीरों के जलते चरागों में तेल ही तो हैं हम। दीपक की ज्योति शिखा जगमगाती है और … और तेल एक-एक बूँद कम होता हुआ सूख जाता है।
“हाउ रफ योर हॉउस इज़ डियर… ।” भाई साहब से बोली वह। भाई साहब के चेहरे पर लज्जा के भाव तैर गए। न जाने क्यों … आज तक मुझे उस घर से लज्जा न महसूस हुयी …पता नहीं भाई साहब को क्यों? ….मैं सोचता हूँ, यदि वह लड़की कहती, “हाउ रफ योर पेरेंट्स आर डियर!” तो भी भाई साहब शर्म से गड़े रह जाते। … पिताजी अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए थे उसे आसन देने के लिए और वह घमंड की पुडिया इतिमिनान से उसी कुर्सी पर विराजमान हो गयी। एक पल को लगा था मुझे – जिन हाथों से नमस्कार किया था उसे, उनमें नासूर उभर आये हों। भाई साहब पिताजी को बताने लगे, “ये मेरे साथ पढ़ती थी कॉलेज में। इसके डैडी सेलेक्शन कमेटी के चेयरमैन हैं। … कई बार ये मुझसे नौकरी दिलवाने को कह चुकी है किन्तु मैंने अस्वीकार कर दिया। अब ऐसा लगता है कि मुझे इस जीवन में नौकरी नहीं मिलेगी … … मैं तो बहुत थक गया हूँ अब।” और पिताजी का हाथ अनायास ही उनके सिर पर चला गया, “ऐसा नहीं कहते हैं बेटा। प्रयत्न करो। अवश्य सफल होगे।” और फिर उनकी निगाहें उस लड़की की ओर उठ गयीं, “माफ़ कीजियेगा। मैं तो असमंजस में आपको चाय पूछना भी भूल गया। मेरे नाम की पुकार हुई। रसोई में माँ के साथ बैठे-बैठे कुछेक शब्द मैंने भी सुने थे। “आप चिंता न करें पिताजी । बहुत जल्द नौकरी मिल जाएगी।” उसी लड़की की आवाज़ थी।
कुछ दिन बीत गए और फिर एक दिन अचानक ही भाई साहब ने शुभ समाचार सुनाया – उनकी नौकरी लग गयी थी। अफसर बन गए थे वे। सारा घर जैसे झूम उठा था प्रसन्नता से। कुछ समय के लिए हमें ऐसा लगा थी जैसे दुःख के सारे बादल छंट गए हों।
और एक दिन अचानक भाई साहब घर में एक दुल्हन ले आये। लाल सुन्दर कीमती जोड़े में लिपटी। पिताजी अवाक् थे, माँ स्तब्ध! कैसे क्या हुआ? कुछ नहीं मालूम। कुछ पल तो सन्नाटे में ही गुजर गए। फिर माँ उठ कर बालाएं लेने लगी बहू की। भाई साहब और लाल जोड़े में लिपटी वही सफ़ेद बर्फ सी स्त्री पिताजी के पांवों में झुक गए। यंत्रवत आशीर्वाद की मुद्रा में उनका हाथ उठ गया जैसे किसी कठपुतली ने अपना डोर से बंधा हाथ नियंत्रक के इशारे पर उठा दिया हो। मैं तो आश्चर्य से देखता रहा। मुझे मालूम था, अब नासूर हर दिन उगेंगे, उपेक्षा प्रतिदिन वातावरण में घुलेगी।
पिताजी भाई साहब को फटी आँखों से देखते रहे और भाई साहब पिताजी से नज़रे चुराते रहे। बाद में पता चला- भाई साहब अपने कालेज के दिनों से ही उससे प्यार करते थे। और शादी का इस तरह ‘अचानक’ हो जाने का भी एक कारण था। चेयरमैन साहब नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी की बारात में गरीबी सेहरा सजा कर आये और सोसायटी में उनकी बेईज्जती हो …इसलिए ‘कोर्ट मैरिज’ हो गयी थी। बल्कि भाई साहब के श्वसुर तो चाहते थे कि भाई साहब शादी के बाद उन्हीं के साथ उनके घर पर रहे, लेकिन भाई साहब को न मालूम कैसे, अभी तक यह याद था कि उनके माता-पिता अभी जीवित हैं।
दिन गुजरने के साथ ही मैंने देखा था – घृणा और उपेक्षा उगने लगी थी घर में – बहुत ही धीरे-धीरे। पिताजी की चिटकती जिंदगी अब टूटने लगी थी। मां तो शाश्वत बीमार थी किन्तु अब तो……और छोटी बहन आभाव का जीवन जीने की आदी हो गयी थी। और … और मेरी हथेलियों में उगते नासूर और बड़े हो गए थे।
मैंने हाईस्कूल पहले ही उत्तीर्ण कर लिया था और इस वर्ष इंटर भी उत्तीर्ण कर लिया। हिम्मत नहीं पड़ती थी भाई साहब से बी०ए० में एडमिशन दिलाने के लिए कहने की। ट्यूशन पढ़ाना आरम्भ कर दिया था मैंने। कुछ पैसे मिल जाते थे। बहुत सारे तो मां के इलाज में ही व्यय हो जाते थे।
मुझे नहीं याद कि आज तक भाभी जी ने रसोईघर में कदम भी रखा हो। बहन सवेरे से लेकर शाम तक जुटी रहती थी घर के काम में। भाभी को अपने मायके, क्लबों, होटलों और सिनेमाघरों से ही कहाँ फुर्सत थी। भाई साहब भी बदल गए थे… बहुत बदल गए थे।
न जाने कितनी ही बार उसने भाई साहब से अलग रहने को कहा होगा और कितनी बार भाई साहब मौन रह गए होंगे – शायद खून का रंग दौलत के रंग से अधिक चमकदार रहा हो … किन्तु उस दिन उनके प्रत्युत्तर ‘हूँ’ ने सिद्ध कर दिया कि लहू का रंग फीका होता जा रहा था।
उस दिन जब फिर भाभी ने बात चलायी तो दबे स्वर में बोले भाई साहब, “सोचता तो मैं भी हूँ। कुमार से कहना – कहीं अच्छा फ्लैट दिलवा देगा।“ स्वर धीमा था किन्तु इतना धीमा भी नहीं कि मेरे कानों तक न पहुँच सके। मुझे लगा था – घर में चिटकन शुरू हो गयी है।
और फिर एक दिन मैंने सुना – फ्लैट मिल गया था।
फिर देखा – कुछ दिनों से भाई साहब परेशान दिख रहे थे। शायद समझ नहीं पा रहे थे – किस तरह घर छोड़ने की बात पिताजी से कहें। क्या बताएँगे – क्यों घर छोड़ रहे हैं?
फिर एक दिन हिम्मत करके पिताजी से कह उठे, “पिताजी, मैं घर छोड़ रहा हूँ।” चुप रहे पिताजी। बहुत देर तक मौन छाया रहा। आश्चर्य हुआ भाईसाहब को, “आपने पूछा नहीं, क्यों घर छोड़ रहे हो?” कुछ पल मौर रहने के बाद पिताजी धीरे से बोले, “मैं कुछ भी पूछने की आवश्यकता नहीं समझाता हूँ।” शायद ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी भाई साहब को। चुपचाप अपने कमरे में चले गए। और दूसरे दिन घर छोड़ दिया उन्होंने। वह खूबसूरत बर्फ सी सफ़ेद स्त्री भी चली उनके साथ ।
…अरे! अभी तक पृष्ठ कोरा ही है। कुछ भी न लिखा मैंने । प्रकाश कंपकंपा रहा था। पीली रेखाएं तैर रही थीं उस श्वेत पृष्ठ पर। … क्या लिखूं मैं? … कुछ भी तो नहीं है मेरे पास … और लिखे हुए पृष्ठों पर कोई क्या लिख सकता है। जीवन के सारे पृष्ठों पर दुर्भाग्य अपना लेख लिख गया है … बदकिस्मती अपनी कहानी लेख गयी है।
फिर डूब जाता हूँ अतीत में ….। भाई साहब घर छोड़कर चले गए। मैं चुप रहा … बहन भी कुछ न बोली, पिताजी तो जैसे गूंगे हो गए थे। बस, मां दहाड़ें मर कर रोती रही … आखिर ममता नहीं मरती। भाई साहब के पाँव एक पल को ठिठके किन्तु वह खूबसूरत बर्फ सी सफ़ेद स्त्री उन्हें खींच कर बाहर ले गई, “चलो, टैक्सी बाहर खड़ी है।” और भाई साहब धीरे से पिताजी से बोले, “मैं अक्सर आया करूँगा पिताजी। आपको कोई कमी महसूस नहीं होगी।” बहुत समय बाद पहली बार पिताजी का मुंह खुला, “औलाद की कमी कभी पूरी नहीं होती बेटे।” चुप हो गए भाई साहब और फिर वे अपराधियों की भांति सर झुकाए द्वार पार कर गए।
उसके बाद मुझे महसूस हुआ था – मां की बीमारी अब चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी … और पिताजी के अन्दर का इंसान भी अब क्रमशा: टूट रहा था।
उस महीने भाई साहब तो नहीं आये किन्तु हाँ, माह के अंत में पोस्टमैन भाईसाहब के भेजे हुए थोड़े से रुपये हाथ में टिका गया। पिताजी की आँखों में उस दिन पहली बार आंसू देखे थे मैंने। कांपते हाथो से हस्ताक्षर कर उन्होंने रुपये ले लिए।
इधर घर की आर्थिक स्थिति और बिगड़ती जा रही थी। मेरे ट्यूशन के पैसों से घर का खर्च चलना नामुमकिन था। भाई सहब ने जितने रुपये भेजे थे, उससे तो किराया भी न चुकता घर का। पिताजी की पेंशन मां की बीमारी के भूसे के ढेर में सुई की तरह गायब हो जाती थी और मां की बीमारी थी कि बढती ही जा रही थी। एक दिन थके हुए पिताजी कह ही उठे, “सोचता हूँ, मैं भी कहीं नौकरी कर लूँ।” बीमार मां धीरे से हंसी, “इतने बड़े अफसर का बूढा बाप नौकरी करेगा?” बड़ा गर्व था बेचारी को अपने बेटे के अफसर होने का। एक फीकी सी मुस्कान तैर गयी पिताजी के अधरों पर। बोले,” मेरे बेटा अफसर अवश्य है लेकिन मैं एक अफसर का बाप नहीं बल्कि मैं एक बीमार और बूढी पत्नी का पति, और एक बेरोजगार बेटे और एक विवाह योग्य बेटी का बाप हूँ।” कितनी व्यथा भरी हुई थी इस एक वाक्य में, यह या तो मैं जानता था या मां…..
एक दिन पिताजी भी नौकरी पाने में सफल हो गए। किसी व्यापारी की दुकान पर लग गए थे। पिताजी को इस बुढ़ापे में कठिन मेहनत करते देख बहुत दुःख होता था किन्तु मैं कर भी क्या सकता था … मेरे बस में तो कुछ भी न था।
एक दिन पिताजी बहुत उदास होकर घर लौटे थे। उनकी आँखें छलछलाई हुयी थीं। आकर चुपचाप बैठ गए थे मां के पास। मां ने बहुत पूछा लेकिन उन्होंने कुछ न बताया। अनु, मेरी छोटी बहन चाय लेकर आयी तो उन्होंने चाय का प्याला किनारे सरका दिया। ऐसा कभी नहीं होता था – पिताजी अनु को बहुत प्यार करते थे और उसके हाथों से बनी चाय में तो उनके प्राण अटकते थे। जब अनु ने अपनी कसम दिलाई तो फूट-फूट कर रो दिए। उन्होंने बताया – आज सेठ की दुकान पर भाई साहब का नौकर सामान खरीदने आया था – एक खूबसूरत हाथों से कढ़े थैले के साथ। सामान अधिक था इसलिए पिताजी उसका बोझा संभाल न पाए और असंतुलन की स्थिति में वह थैला गिर गया और किसी चीज से रगड़ कर थोडा फट गया। फटा हुआ झोला देखकर वह नौकर पिताजी पर बरस पड़ा और चिल्लाया कि वह भाई साहब जो इतने बड़े अफसर हैं, उनका नौकर है और उनकी पत्नी का वह खास थैला था। उसने उन्हें गलियां बकते हुए उन पर हाथ तक उठा दिया और सेठ सिर्फ देखता रहा। सेठ बोला, “भैय्या, सब्र करो। मैं थैले के दाम इस बूढ़े के वेतन से काट लूँगा।“ लेकिन नौकर बोला कि वह शाम को मालिक-मालकिन को साथ लेकर आएगा और तभी सारा सामान ले जायेगा। पिताजी ने सेठ से छुट्टी भी मांगी तो सेठ ने छुट्टी देने से इंकार कर दिया और बोला, “जब साहब के सामने सारा मामला सुलझ जायेगा, पिताजी तभी दुकान से जा सकते हैं। शाम को भाई साहब, उनकी पत्नी और नौकर दुकान पर आये और नौकर ने इशारा करके बताया कि इसी बूढ़े ने थैला फाड़ा है। पिताजी अपराधियों की तरह सर झुकाए खड़े रहे और भाई साहब पिताजी को देखकर चौंक गए लेकिन उनकी पत्नी पिताजी को पहचान कर भी उन्हें अंग्रेजी में गालियां देती रहीं। भाई साहब के होंठों पर ताला लग गया था। भाई साहब की पत्नी ने सेठ से थैले के पैसे वसूल कर लिए और भाई साहब के सामने ही सेठ ने पिताजी को गालियां बकते हुए नौकरी से निकाल दिया। पिताजी को उनके अपमान ने इतना दुख नहीं पहुँचाया था जितना भाईसाहब की चुप्पी ने। मैंने पहली बार पिताजी को फूट-फूट कर रोते देखा था।
क्रमशः