घर टूट गया

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप  

कहानी

और अब आगे

उस रात घर में कोई नहीं सोया। पिताजी रात भर उठ-उठ कर टहलते रहे। माँ की आँखों से उस रात आँसू नहीं, खून बहा था। अनु की आँखें पथरा गईं थीं जिनमें सपने कभी नहीं उगते और मेरी आँखों से बस धधकता हुआ धुआँ निकलता रहा। मैं बार-बार पिताजी के अपमान का बदला लेने आर-पार की लड़ाई के लिये घर से जाना चाहता था लेकिन माँ और पिताजी ने अपना वास्ता देकर मुझे रोक लिया। वे बोले कि वे एक बेटा सदैव केवल लिये खो चुके हैं लेकिन दूसरा बेटा नहीं खोना चाहते।

दूसरे महीने से रुपये आने भी बन्द हो गये, भाई साहब तो पहले से ही न आते थे। पिताजी ने किसी दूसरी दुकान पर काम पकड़ लिया था।  यद्यपि अब पिताजी भी कुछ रुपये पा जाते थे किन्तु माँ की बीमारी तो सुरसा का मुख ही थी। कभी-कभी तो फाके की स्थिति भी आ जाती थी। ……धीरे-धीरे एक लम्बा समय गुज़र गया ….. और एक दिन अचानक बीमार माँ खाँसती-खाँसती सदा के लिये खामोश हो गयी। शाश्वत बीमारी का अनायास ही अन्त हो गया। मुझे याद है … मरते समय भी माँ भाई साहब को पुकार रही थी। मैं कई बार गये थे भाई साहब के घर – ज्ञात हुआ था कि वे शिमला गये हुए हैं। किन्तु हृदय तो उस समय टूट कर रह गया जब देखा- माँ की अर्थी को कँधा देने वालों में एक वे भी हैं। न जाने कैसे आज अचानक टपक पड़े। शायद अब तक छिपे हुए थे – कहीं मरती हुई माँ उन पर मेरा और बहन का बोझ न डाल जाये। माँ की अन्तिम यात्रा से लौट कर कुछ देर उदास खड़े हो गये – वह खूबसूरत, बर्फ सी सफ़ेद स्त्री भी थी उनके साथ। थोड़ी देर बाद उनका हाथ झकझोर कर बोली, ‘‘चलो भी, वरना मिसेज अस्थाना की पार्टी में देर हो जायेगी।’’ अन्दर तक धधक उठा मैं किन्तु भाई साहब चुप रहे… समझ न सका मैं… क्या कभी व्यक्ति इतना गूंगा भी हो जाता है…. इतना मौन…. जैसे पत्थर। फिर कुछ देर बाद बोले, ‘‘अच्छा पिताजी, अब चलता हूँ। ‘‘पांव छूने को नीचे झुके किन्तु पहली बार पिताजी ने अपने पांव खींच लिये।

‘‘अमीर लोग, गरीबों के पांव नहीं छूते हैं, आफीसर साहब।’’

मैंने देखा- भाई साहब का मुँह धुआँ हो गया था। कुछ पल तक वहीं खड़े रहे फिर धीरे से भाभी के साथ बाहर निकल गये। कार के स्टार्ट होने की आवाज़ सुनाई दी थी हमें। मुझे लगा- घर कुछ और चिटक गया है। 

शायद उस दिन पिताजी अपने हृदय में पलते दर्द को न रोक सके। आखिर उबल ही पड़ा था दर्द और पिताजी बाँहों में सिर छिपाये रोने लगे।…और …..अरे यह क्या? लैम्प की रौशनी भी रो रही है। बत्ती ढीली है लैम्प की – अपने आप उतर जाती है। फिर तेज करता हूँ बत्ती को- निर्जीव प्रकाश में प्राण का संचार हो जाता है। …..ओह….पृष्ठ अभी तक कोरा है…. जैसे चिढ़ा रहा हो मुझे। मस्तिष्क को फिर एकत्रित करता हूँ…. किन्तु कोई लाभ नहीं है….. जब जीवन ही बिखरा हो तो मस्तिष्क कहाँ से एकत्रित होगा …

…..बिखरा मैं भी था, मेरी छोटी बहन भी और पिताजी भी। माँ की मृत्यु के बाद जैसे अचानक ही पिताजी की आयु दस वर्ष बढ़ गयी थी। वे और अधिक बूढ़े लगने लगे थे। अब अधिक काम भी नहीं होता था उनसे। लगता था…. वे बिल्कुल टूट गये हों, थक गये हों….. और वास्तव में भी वे टूट चुके थे……

……उस दिन अचानक ही हृदय की पीड़ा से छटपटा उठे थे। घबरा उठा मैं। और फिर तो नित्य प्रति ही ऐसा होने लगा। आखिरकार अस्पताल में दिखाया। और फिर….. फिर सिद्ध हो गया- वे वास्तव में टूट चुके हैं।हार्ट-अटैकहुआ था उन्हें। सनाका खा गया मैं। देखा – पिताजी की ओर, अब मुझे धोखे में रखने की शक्ति उनमें न रह गयी थी। …..बहुत मुर्झा गये थे वे। भाई साहब को इस बार भी खबर दी,…… किन्तु ज्ञात हुआ, नैनीताल जा चुके हैं वे…….! कुछ दिन बाद पिताजीडिस्चार्जहोकर घर आ गये। डाक्टर ने दवा लिख दी थी। कुछ दिन बीत गये….. और अचानक एक दिन फिरअटैकपड़ा। बूढ़ा हृदय झेल न सका और पिताजी बगैर कुछ कहे सुने सदा के लिये चले गये।

एक बार फिर अर्थी सजी और एक बार फिर भाई साहब दिखायी दिये। मैं कुछ न बोला उनसे…. हमारे बीच एक अदृश्य मौन की दीवार जो थी। वे बस छोटी बहन को सांत्वना देते रहे। अर्थी उठी, चिता जली और लोग सहानुभूति दर्शाते हुए चले गये लेकिन भाई साहब अभी तक न गये थे। आश्चर्य था मुझे, न जाने वे क्या चाहते थे मुझसे? इस घर से अब कौन सा सम्बन्ध जुड़ा रह गया था उनका। भाभी भी साथ थी किन्तु उन्होंने घर के अन्दर आने की आवश्यकता न समझी थी – बाहर कार में ही बैठी रहीं। भाई साहब कुछ देर चुपचाप बैठे रहे। फिर धीरे से बोले, ‘‘मैं सोचता हूँ, तुम दोनों मेरे साथ रहो।’’ अनु, मेरी छोटी बहन स्थिर स्वर में बोली, ‘‘बहुत देर से आपने यह सोचा भाई साहब, तब, जबकि हम आपके साथ रहने का इरादा ही त्याग चुके हैं।’’ अनु अब बड़ी हो गयी थी, बल्कि अनुभवशील भी। बेचारी सारी ज़िन्दगी भर अनुभव ही समेटती रही। भाई साहब भौचक्के रह गये थे। उन्हें नहीं मालूम था, अनु के हृदय में उनके लिये इतनी घृणा पल रही थी। फिर धीरे से मेरी ओर दृष्टि उठायी, ‘‘तुम क्या कहते हो?’’ मैं भी मौन रहा…… एक पल, दो पल……और फिर बोल ही पड़ा, ‘‘मैं क्या कहूंगा भाई साहब, जब खाँसती हुई माँ कुछ न कह सकी, बूढ़े पिताजी कुछ न कह सके।’’

इस बीच बाहर से कई बारहार्नबजाया जा चुका था।

‘‘जाइये भाई साहब! देर हो रही है आपको।’’ अनु बोली।

धीरे से उठ गये भाई साहब। द्वार की ओर बढ़े…. फिर ठिठक गये। सूनी निगाहों से हमारी ओर देखा, फिर बोले, ‘‘तुम लोगों को कभी किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो संकोच मत करना।’’

‘‘जब माँ बीमार थी तो आप शिमला गये हुए थे, जब पिताजी बीमार पड़े थे, आप नैनीताल की यात्रा कर रहे थे। अब हम आपको अनायास ही मंसूरी या कश्मीर नहीं भेजना चाहते हैं।’’ अनु बोली।

मैं देख रहा था- अनु कुछ अधिक ही बोल रही थी- शायद कटु अनुभवों ने उसे वाचाल बना दिया था।

भाई साहब उसे ताकते ही रहे। फिर अचानकहार्नबज उठा और वे चुपचाप द्वार पार कर गये। प्रतीत हुआ – घर टूटने लगा है।

कुछ समय और गुज़र गया। वक्त का रथ कुछ और आगे बढ़ गया। इधर मैं कुछ रचनायें पत्र-पत्रिकाओं में भी भेजने लगा था। लिखने में आरम्भ से ही रुचि थी किन्तु कभी परिस्थितियों ने इतना अवसर ही नहीं दिया। अब तो छपने भी लगी हैं रचनाएँ। कुछ पैसे भी मिल जाते हैं। ट्यूशन भी करता हूँ….. इधर महसूस करने लगा हूँ….. ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं… वास्तव में, अब घर में सभी कुछ मैं ही था। भाई भी, माँ भी, पिता भी।

भाई साहब ने इधर मुख नहीं किया – शायद आवश्यकता ही न समझी हो। एकाध बार मैंने उन्हें देखा भी किन्तु मैं ही कतरा कर निकल आया। इधर नौकरी के लिये कुछ आवेदन पत्र भी भरे किन्तु कुछ सफलता न मिली।

उस दिन जब ट्यूशन पढ़ा कर घर लौटा तो देखा – अनु बुखार में तप रही थी। माथे पर हाथ धरा तो लगा – जल ही जाऊँगा। वह शीत से काँप रही थी। कुछ समझ में न आया तो घर का सारा बिस्तर ही डाल दिया उस पर। फिर भी उसक कँपकँपाना कम न हुआ।

डाक्टर से दवा लाकर उसे दी। रात भर उसके सिरहाने बैठकर पानी की पट्टियाँ बदलता रहा और वह अचेतावस्था में न जाने क्या- क्या बड़बड़ाती रही।

सात दिन बीत गये। बुख़ार कम न पड़ा। प्रायः अचेत ही रही वह। मेरे पैसे समाप्त होने लगे थे। कुछ समझ न आ रहा था, क्या करूँ – क्या न करूँ। भाई साहब के पास जाऊँ। …..लेकिन नहीं, …..अनु बेहोशी की हालत में न जाने कितनी ही बार कह चुकी थी…..भाई साहब! मुझे तुम्हारा दिया कफन भी नहीं चाहिये।’ …..ओह, बहुत टूट चुका है अनु का हृदय, बहुत गहरे घाव हैं।

सारे पैसे समाप्त हो गये….. अब कुछ भी न बचा मेरे पास। अनु का बुखार बढ़ता जा रहा था। क्या करूँ? …… भाई साहब के पास जाऊँ? ….. हाँ, जाना ही होगा….. दूसरा कोई रास्ता नहीं।

भाई साहब के यहाँ गया। भाभी मिली थीं।

‘‘तुम!’’ मुझे देखकर आश्चर्य और क्रोध, दोनों ही उभरे थे।

‘‘जी, मैं!’’ धीरे से बोला मैं, ‘‘अनु की तबियत बहुत खराब है। भाई साहब….!’’ वाक्य पूरा न करने दिया उन्होंने, ‘‘भाई साहब नहीं जा सकते। कल मुन्ने का जन्मदिन है। उसका प्रबन्ध करना है।’’

आँखें आश्चर्य से फैल गयीं मेरी। क्या जीवन और मृत्यु से बड़ी भी कोई चीज़ है? …..मैं आज तक न जान सका था।

चारों ओर दृष्टि घुमाई- कहीं दिखाई न दिये वे।

‘‘भाभी…..!’’

‘‘मैंने कह दिया न, वे नहीं जा सकते।’’ और फिर एकाएक ही पुकार उठीं, ‘‘जगत राम।’’

खाकी वर्दी में एक व्यक्ति तुरन्त आ पहुँचा वहाँ।

‘‘कहाँ चले गये थे तुम? ‘‘वे दहाड़ी’’, तुम्हारी ड्यूटी गेट पर थी। न जाने कैसे-कैसे लोग चले आते हैं, यहाँ भीख माँगने।’’

क्रोध से उबल पड़ा मैं, ‘‘भीख नहीं भाभी, अधिकार मांगने आया था। एक बहन का अधिकार मांगने आया था एक भाई से। उसे भीख कह कर बदनाम मत कीजिये। अनु तो यही कहती रही- भाई साहब! मुझे तुम्हारा दिया कफ़न भी नहीं चाहिये ……लेकिन मैं कैसे उसे मरते हुए देखूँ।

‘‘नहीं देख सकते हो तो आँखें बन्द कर लो।’’ भाभी क्रोध से पांव पटकती हुई ऊपर चढ़ गयी।

चुपचाप मुड़ गया मैं। रुकने से कोई लाभ भी न था।

एक रात और गुज़र गयी।

आज सवेरे से ही अनु की हालत बहुत खराब थी। वह बिल्कुल अचेत पड़ी थी। निश्चल ……एक पत्थर की भांति। मेरी दृष्टि दौड़ रही थी- घर की वस्तुओं पर। क्या चीज़ बेच दूँ, जो अनु की दवा आ सके…. लेकिन कुछ भी नहीं है। कुछ भी इतना कीमती नहीं जो बाजार में बिक सके।

अनु कराह रही थी। लपका उसकी ओर। शरीर तप कर अंगारा हो रहा था। आँखें टिकी थीं मुझ पर।

‘‘पानी….. अनु, पानी लो।’’ पानी पिलाने का प्रयत्न करने लगा। एक पागल की भांति जैसे उसके इस तेज़ बुखार को पानी से ही उतार दूँगा।…….. किन्तु पानी गले से नीचे न उतरा। घबरा गया मैं। भय से कांप उठा। आँखें अभी भी खुली थीं उसकी।

‘‘अनु……अनु।’’ उसे हिलाया मैंने…..और गर्दन एक ओर लुढ़क गयी। ‘‘अनु…………उ………….उ……….!’’ चीख उठा मैं। मुझे क्या मालूम था, प्राण इतनी फुर्ती से निकले थे कि उसे आँखें बन्द करने का भी अवसर न मिला।

ओह……..यह प्रकाश फिर मद्धिम पड़ गया। फिर तेज़ करता हूँ बत्ती को……. उजाला फैल जाता है। पृष्ठ अभी भी कोरा ही है। एक शब्द भी न लिख सका हूँ मैं।

आज दोपहर अनु की चिता में आग़ लगा कर आया हूँ मैं। सब दिखायी दिये…… लेकिन भाई साहब नहीं थे। आते भी कैसे……….उनके मुन्ने की बर्थ-डे पार्टी जो थी। बहुत व्यस्त होंगे उसमें। और भाभी! ………..उन्हें तो शायद साँस लेने की भी फुर्सत न मिली हो।

सारा दिन गुज़र गया है। अब तो रात भी चढ़ने लगी है। …..न जाने कैसी आँखें हो गयी हैं मेरी-एक भी आँसू न बहा सका मैं। शायद अब आँसू रहे ही न हों। बदनसीब अनु………कोई भी रोने वाला नहीं था उसकी मौत पर……..

प्रतीत हो रहा है….घर की चिटकन धीरे-धीरे अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी है…. सारा घर टूट गया…… फर्श, दीवारें, छत, खिड़की, दरवाज़े और……….. और मैं भी……….

आज कुछ लिखना अवश्य है। अनु की अन्तिम क्रिया जो करनी है…… आज रचना भेज दूँगा……….हो सकता है चार-पाँच दिन में पारिश्रमिक भी आ जाये। ट्यूशन पर तो अभी माह आरम्भ ही हुआ है। सब जगह माँग कर देख चुका हूँ…..किन्तु कोई लाभ नहीं……….किन्तु लिखूँ तो क्या लिखूँ……. कलम के पास जैसे कोई शब्द ही नहीं हैं…….क्या लिखूं….. प्रेम कहानी! या किसी उजड़ते घर की व्यथा…….या………

अरे! शायद किसी ने दरवाज़ा धकेला है। कौन हो सकता है? भाई साहब? हाँ, भाई साहब ही हैं………..उन्होंने मेरा नाम जो पुकारा है। जवाब दूँ? लेकिन कैसे………. कंठ में कोई गोल वस्तु अटक गयी है। अरे, ये क्या? पथरायी आँखें एकाएक ही पिघल गयीं। ढेर सारे थमे हुए आँसू कोरे पृष्ठ पर गिरकर फफोले से उभर आये। अनु……..मेरी बहन अनु…………अब कोई न कह सकेगा………..तेरी मृत्यु पर कोई रोया नहीं। ……….भाई साहब इधर आ रहे हैं….क्या कहूंगा उनसे!……..अचानक ही दिल में दर्द हो उठा है। अरे, मेरी कलम चलने लगी है…….कोरा पृष्ठ कोरा नहीं रहा। आखिरकार लिख ही तो दिया न –भाई साहब!घर टूट गया’…

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