तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
बारिश, बरसात या सावन – ये केवल झर झर झरते पानी का ही मौसम नहीं है बल्कि ये मदमस्त कर देने वाली सोंधी सोंधी कच्ची खुश्बू का भी मौसम है। यह दुनिया के सभी साहित्यों के सबसे पसंदीदा विषय है।
प्रेम का, इश्क का और मोहब्बत का हर रंग इसमें कभी गुनगुनाता हुआ, कभी मुस्कराता हुआ और कभी आँखों मे छलछलाता हुआ मौजूद है। बरसात संयोग का भी मौसम है और वियोग का भी। जिस का प्रेमी साथ में है, बारिश उसे अपनी मखमली उंगलियों से सहलाती है और जो अपने प्रियतम से दूर है, उसे यही बारिश पानी की बूँदों के रूप में बरसते हुये अंगारों से जलाती है। क्या समझा जाये इस खुशगवार या नामुराद बारिश को? आखिर ये है क्या बला? ये दोस्त है या दुश्मन? सच यह है कि बारिश वह शय है जिसे सब अपने अपने ही नज़रिये से देखते हैं। उर्दू शायरी में बरसात के हज़ारों रंग दिखाई पड़ते हैं और कुछ रंग तो इतने पक्के हैं जो सीधे दिल पे अल्पनायें सजा जाते हैं।
मुख्य रूप से उर्दू शायरी में ‘बारिश’ दो बिरादरियों में बँटी हुई है। एक है जो एक ‘अज्ञात’ शायर के हवाले से कहती है –
” रात जाने बादलों के बीच क्या साजिश हुई।
मेरा घर मिट्टी का था, मेरे ही घर बारिश हुई।।”
तो दूसरी हिंदी साहित्य के महान् गीतकार गोपाल दास ‘नीरज’ की गीतिका के माध्यम से पुकार उठती है –
“अबकी बारिश में, शरारत ये मेरे साथ हुई।
घर मिरा छोड़कर, कुल शह्र में बरसात हुई।।”
कितना खूबसूरत और मन को छू लेने वाला विषय है यह बारिश। आईये, इस मौसम का आनंद लेते हैं बारिश को अपने-अपने अंदाज़ से देखते अपने प्रिय शायरों के खूबसूरत अशआर के चश्मों से।
कवि व शायर गोपाल दास ‘नीरज’ उस भाषा के साहित्यकार थे जो हिंदी भी थी और उर्दू भी। बारिश पर इस आलेख को उनके इस गीत-अंश के साथ प्रारंभ करना मुझे यथोचित लग रहा है –
“अब सही जाती नहीं, यह निर्दयी बरसात,
खिड़की बंद कर दो।
रो न मेरे मन, न गीला आँसुओं से कर बिछौना,
हाथ मत फैला,पकड़ने को लड़कपन का खिलौना,
मेंह पानी में निभाता, कौन किसका साथ,
खिड़की बंद कर दो।”
क़ैफ़ी आज़मी उर्दू शायरी का एक बुलंद नाम है। क़ैफ़ी आज़मी उर्दू साहित्य में एक स्कूल की हैसियत रखते हैं। उनकी शिल्प शैली और भाव भूमि, दोनों ही अद्भुत हैं। ‘बरसात की एक रात’ उनकी एक मशहूर नज़्म है और जब बात उर्दू शायरी में बारिश का हो तो उसका ज़िक्र होना लाज़िमी ही है –
“ये बरसात ये मौसम-ए-शादमानी।
ख़स-ओ-ख़ार पर फट पड़ी है जवानी।।
भड़कता है रह रह के सोज़-ए-मोहब्बत,
झमाझम बरसता है पुर-शोर पानी ।।
फ़ज़ा झूमती है घटा झूमती है।
दरख़्तों को ज़ौ बर्क़ की चूमती है।।
थिरकते हुए अब्र का जज़्ब तौबा,
कि दामन उठाए ज़मीं घूमती है ।।
कड़कती है बिजली चमकती हैं बूँदें।
लपकता है कौंदा दमकती हैं बूँदें।।
रग-ए-जाँ पे रह रह के लगती हैं चोटें,
छमा-छम ख़ला में खनकती हैं बूँदें।।
फ़लक गा रहा है ज़मीं गा रही है।
कलेजे में हर लय चुभी जा रही है।।
मुझे पा के इस मस्त शब में अकेला,
ये रंगीं घटा तीर बरसा रही है।।
चमकता है बुझता है थर्रा रहा है।
भटकने की जुगनू सज़ा पा रहा है।।
अभी ज़ेहन में था ये रौशन तख़य्युल,
फ़ज़ा में जो उड़ता चला जा रहा है।।
लचक कर सँभलते हैं जब अब्र-पारे।
बरसते हैं दामन से दुम-दार तारे।।
मचलती है रह रह के बालों में बिजली,
गुलाबी हुए जा रहे हैं किनारे ।।
फ़ज़ा झूम कर रंग बरसा रही है।
हर इक साँस शोला बनी जा रही है।।
कभी इस तरह याद आती नहीं थी,
वो जिस तरह इस वक़्त याद आ रही है।।
भला लुत्फ़ क्या मंज़र-ए-पुर-असर दे।
कि अश्कों ने आँखों पे डाले हैं पर्दे।।
कहीं और जा कर बरस मस्त बादल,
ख़ुदा तेरा दामन जवाहिर से भर दे।।”
बात उर्दू शायरी की हो तो वह ‘साहिर लुधियानवी’ का ज़िक्र किये बगैर पूरी हो ही नहीं सकती। क्या कमाल के शायर थे साहिर भी। लफ़्ज़ों से तस्वीर बनाने का जो हुनर उनके पास था, वह खुदा किसी-किसी को ही देता है। उनकी बहुत ही मशहूर नज़्म जो बाद में ‘बरसात की रात’ नामक फिल्म का हिस्सा भी बनी, आज आप के साथ शेयर कर रहा हूँ –
ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात।
एक अन्जान हसीना से मुलाक़ात की रात।।
हाय वो रेशमी जुल्फ़ों से बरसता पानी,
फूल से गालों पे रुकने को तरसता पानी,
दिल में तूफ़ान उठाते हुए जज़्बात की रात।
डर के बिजली से अचानक वो लिपटना उसका,
और फिर शर्म से बलखा के सिमटना उसका,
कभी देखी न सुनी ऐसी तिलिस्मात की रात।
सुर्ख आँचल को दबाकर जो निचोड़ा उसने,
दिल पर जलता हुआ एक तीर सा छोड़ा उसने,
आग पानी में लगाते हुए हालात की रात।
मेरे नगमों में जो बसती है वो तस्वीर थी वो,
नौजवानी के हसीं ख्वाब की ताबीर थी वो,
आसमानों से उतर आई थी जो रात की रात।
हसरत मोहानी एक बेहतरीन शायर के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। हिंदुस्तानी क्रांति को ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा देने वाले हसरत मोहानी को नयी नस्ल उनकी मशहूर ग़ज़ल ‘चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है’ के हवाले से जानती है। वर्ष 1875 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के मोहान नामक स्थान पर जन्मे हसरत मोहानी का निधन वर्ष 1951 में हुआ। वे कहते हैं कि बरसात तो बड़ों-बड़ों का ईमान डुला देती है और वह बरसात ही क्या जो नीयत न बदल दे –
“बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी,
बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी।”
शायर कैफ़ी हैदराबादी का जन्म वर्ष 1880 में व उनकी मृत्यु वर्ष 1920 में हुई। वे अपने समय के मशहूर शायर थे। उनका यह शेर आपके लिये –
वो अब क्या ख़ाक आए हाए क़िस्मत में तरसना था
तुझे ऐ अब्र-ए-रहमत आज ही इतना बरसना था।।
क़ैफ़ भोपाली एक प्रसिद्ध शायर हैं। भोपाल में 1917 में जन्मे इस शायर की मृत्यु 1991 में हुई। वे पाक़ीज़ा फ़िल्म के गीत ‘चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो’ के गीतकार के रूप में भी चर्चा में रहे। बारिश पर उनका यह खूबसूरत शेर पेश है –
“दर-ओ-दीवार पे शक्लें सी बनाने आई।
फिर ये बारिश मिरी तंहाई चुराने आई।।”
भला ऐसा कौन है जो उर्दू शायरी का दीवाना हो और पाकिस्तान के मशहूर शायर क़तील शिफ़ाई से परिचित न हो। पाकिस्तान के हरिपुर में 1919 में जन्मे व 2011 में लाहौर, पाकिस्तान में दिवंगत हुये क़तील शिफ़ाई अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शायर थे और सादगी उनकी शायरी का सबसे खूबसूरत पहलू है। बारिश को उन्होंने किस खूबसूरत अंदाज़ में परखा है, ज़रा आप भी देखिये –
“दूर तक छाये थे बादल, और कहीं साया न था।
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था।।”
और एक शेर यह भी –
“धूप सा रंग है और खुद है वो छाँवो जैसा,
उसकी पायल में बरसात का मौसम छनके।”
और उनका यह शेर भी मुलाहिज़ा फ़रमायें –
“गुनगुनाती हुई आती हैं फ़लक से बूँदें,
कोई बदली तिरी पाज़ेब से टकराई है।”
वर्ष 1923 से 1972 के मध्य इस दुनिया में क़याम करने वाले पाकिस्तानी शायर नासिर काज़मी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे ऐसे शायर हैं जिनकी ग़ज़लों में भरपूर मुहसिकी होती है और जिन्हें भारत व पाकिस्तान, दोनों के मशहूर गायकों ने खूब गाया है। आइये, देखते हैं बारिश पर उनका अपना रंग –
“याद आई वो पहली बारिश,
जब तुझे एक नज़र देखा था।”
मोहम्मद अल्वी अहमदाबाद, गुजरात में वर्ष 1927 में जन्मे एक कामयाब शायर हैं। ‘खाली मकान’, ‘आखिरी दिन की तलाश’, ‘तीसरी किताब’, ‘चौथा आसमान’ एवं ‘रात इधर उधर रोशन’ उनकी पुस्तकें हैं। छोटी बह्र में बारिश पर उनका यह शेर कितना खूबसूरत है –
“धूप ने गुज़ारिश की ।
एक बूँद बारिश की ।।”
और एक शेर यह भी –
“और बाज़ार से क्या ले जाऊँ।
पहली बारिश का मज़ा ले जाऊँ ।।”
सज्जाद बाक़र रिज़वी कराची, पाकिस्तान में वर्ष 1928 से 1993 तक जीवित रहने वाले शायर थे। शायरी में एक अलग ही शख़्सियत के मालिक थे। बातों को नये पैंतरों के साथ रखना उनकी ख़ासियत थी। उनका एक शेर आपके लिये –
“टूट पड़ती थीं घटाएँ जिन की आँखें देख कर,
वो भरी बरसात में तरसे हैं पानी के लिए।”
मुनीर नियाज़ी पंजाब के होशियारपुर में वर्ष 1929 में जन्मे एवं वर्ष 2006 में इनका इंतकाल हुआ। उनके 11 उर्दू और 8 पंजाबी संकलन प्रकाशित हुये जिनमें से ‘तेज हवा और फूल’, ‘पहली बात ही आखिरी थी’, ‘एक दुआ जो मैं भूल गया था’ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। बारिश पर उनका यह शेर कितने हसीन मानी परोसता है –
“घटा देख कर ख़ुश हुईं लड़कियाँ,
छतों पर खिले फूल बरसात के।”
शायर ज़फ़र इक़बाल का जन्म वर्ष 1932 में पाकिस्तान में हुआ। वे एक उच्च कोटि के शायर हैं। वे कहते हैं कि महबूब का पैग़ाम केवल रात भर का है और यह मुई बारिश को भी पूरी रात ही बरसना है। क्या खूबसूरत शेर है –
उस को आना था कि वो, मुझ को बुलाता था कहीं,
रात भर बारिश थी उस का, रात भर पैग़ाम था।”
उत्तर प्रदेश के अमरोहा नगर से वाबस्ता ज़ुबैर रिज़वी वर्ष 1935 में जन्मे थे और वर्ष 2016 में इनकी मृत्यु हुई। देखिये तो, वे भला बरसात को कैसे देखते हैं –
“कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई,
पहली बारिश ही ने बरसात की ढाया है मुझे।”
अहमद ‘फ़राज़’ उर्दू शायरी के एक बड़े शायर थे जो पाकिस्तान के होते हुये भी हिंदुस्तान में भी बहुत ही मकबूल हैं। वे कहते है –
“शायद कोई ख्वाहिश रोती रहती है,
मेरे अन्दर बारिश होती रहती है।”
क्रमशः