एज़ाज़ क़मर, डिप्टी एडिटर-ICN
(The Jewish Fairies of Bollywood : A Tribute)
नई दिल्ली। बॉलीवुड मे यहूदी अभिनेत्रियो के आगमन से पहले पुरुष कलाकार महिलाओ की भूमिका भी अदा किया करते थे,क्योकि संभ्रांत/सम्मानित परिवारो की महिलाये फिल्मो मे काम (अभिनय) करना दुष्कर्म (पाप) समझती थी,बल्कि सिर्फ राजा-नवाब के दरबार मे नाचने-गाने वाली नर्तकी-गायिका ही फिल्मो मे काम करने का ज़ोख़िम लेती थी।फिर बॉलीवुड से जुड़े परिवारो की महिलाये अपने परिवार के पुरुष सदस्यो की सहायता के नाम पर फिल्मो मे अभिनय करने लगी,किंतु क्रांति तब आई जब कामकाजी महिलाये अधिक धन कमाने के लालच मे बॉलीवुड की तरफ दौड़ने लगी,क्योकि बॉलीवुड मे काम करने वाली अभिनेत्रियो का वेतन उस समय के मुंबई प्रेसिडेंसी के गवर्नर से भी अधिक होता है।चिंतन-लेखन जैसे कार्य वाला इंसान फिल्म इंडस्ट्री मे तो आ सकता है लेकिन एक बार बॉलीवुड मे आ जाये तो फिर चिंतन-लेखन के लिये समय निकालना असंभव होता है,किंतु सबिता देवी उन चंद अभिनेत्रियो मे से है जिन्होने बख़ूबी यह कार्य किया और वह एकमात्र पुरानी अभिनेत्री है जिसके नाम के आगे बुद्धिजीवी/समाज-सुधारक/नारीवादी जैसे शब्द उपयोग किये जाते है इसलिये यह शब्द उनके सामाजिक-मानसिक स्तर की व्याख्या करते है क्योकि अभिनेत्रियां अपनी देह की सुंदरता/अभिनय/नृत्य/गायन के लिये पहचानी है,जब 1931 मे फिल्मलैंड इंगलिश साप्ताहिक के नवंबर अंक मे एक अनाम अभिनेत्री ने निर्माता-निर्देशको द्वारा शोषण तथा नैतिक मूल्यो के पतन का मुद्दा उठाया,तब समाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओ की तरह सविता देवी ने मोर्चा संभाला और सामंतवादी-मानसिकता और पुरुष-सत्तात्मक सोच को ललकारते हुये कहा; कि यह एक सम्मानित पेशा है इसलिये अनर्गल आरोप नही लगाना चाहिये और उन्होने चुनौती देते हुये कहा कि सच्चाई जानने के लिये अच्छे परिवारो की महिलाएं फिल्मो मे क्यो नही आती है?1914 मे एक यहूदी परिवार मे जन्मी सबिता देवी (आइरिस गैस्पर) ने रानी पद्मिनी की कहानी पर बनी तथा दिनेश रंजन दास द्वारा निर्देशित “कामनेर आगुन” (फ्लेम्स ऑफ द फ्लैश) मे अभिनय (पहली फिल्म) किया जिसका निर्माण कलकत्ता की “ब्रिटिश डोमिनियन फिल्म्स लिमिटेड” ने 1930 मे किया था,फिर उसके बाद बॉम्बे आकर उन्होने मुख्यत: “सागर मूवीटोन” द्वारा निर्मित फिल्मो मे मोतीलाल राजवंश (सह-कलाकार) के साथ अभिनय किया।वह अपने दौर मे तीसरी सर्वाधिक महंगी अर्थात वेतन पाने वाली अभिनेत्री थी,उनकी शानो-शौकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि के.एम. मुंशी और रमनलाल वसंतलाल जैसे लेखको से उनकी फिल्मो की कहानियां लिखवाई जाती थी और बड़े-बड़े निर्देशको से निर्देशन करवाया जाता तथा इस बात की सावधानी रखी जाती कि कही उनकी फिल्मे फ्लॉप नही हो जाये इसलिये उसका खूब प्रचार अथवा विज्ञापन करवाया जाता था,उनके रुतबे और रोआब का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उर्दू के मशहूर लेखक कृष्ण चंद्र ने 1947 मे उनकी फिल्म “सराय के बाहर” को निर्देशित किया था।सबिता ने “सर्वोत्तम बादामी” की साझेदारी तथा “रंजीत स्टूडियो” की सहायता से अपनी प्रोडक्शन कंपनी “सुदामा पिक्चर्स” का गठन किया,उन्होने 1935 से 1943 दौरान पंद्रह फिल्मो मे अभिनय किया जिसमे से बादामी द्वारा निर्देशित चौदाह तथा सी.एम. लुहार द्वारा निर्देशित स्टंट फिल्म (Action Movie) “सिल्वर किंग” (उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म) शामिल है।