तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
(श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद)
द्वितीय अध्याय (सांख्य योग)
(छंद 78-85)
श्रीकृष्ण : ( श्लोक 55-72)
उस आनंदित साधक की,
मति सुख सागर में खोती।
पा साथ परम सत्ता का,
गति उसकी स्थिर होती।।(78)
जो जीत नहीं पाता मन,
एकाग्र भला कैसे हो।
है शांति भाव से वंचित,
दुखपूर्ण ह्रदय जैसे हो।।(79)
जिस भाँति वायु हर लेती,
जल में तिरती नौका को।
उस भाँति विषय पूरित मन,
संपूर्ण डुबोता उसको।।(80)
हे महाबाहु, इससे ही,
हैं जहाँ इंद्रियाँ वश में।
है बुद्धि उसी की स्थिर,
जो सम है यश-अपयश में।।(81)
लगता जो निशा सभी को,
वह ज्ञान कर्म योगी का।
है रात्रि सरीखा उसको,
नश्वर सुख जो भोगी का।।(82)
जैसे जल सब नदियों का,
है शांत सिंधु में खोता।
हर भोग मात्र अविकारी,
स्थिर मति को, मिल, होता।।(83)
जो मोह, अहं, इच्छायें,
ममता को तज रहता है।
है शांति उसी को मिलती,
यह सृष्टि नियम कहता है।।(84)
जो ब्रह्म प्राप्त करता है,
वह मोह विरत होता है।
हे अर्जुन, ऐसा योगी,
अंतिम सुख में खोता है।।(85)
(द्वितीय अध्याय समाप्त)
क्रमशः
विशेष :गीत-गीता, श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद है तथा इसमें महान् ग्रंथ गीता के समस्त अट्ठारह अध्यायों के 700 श्लोकों का काव्यमय भावानुवाद अलग-अलग प्रकार के छंदों में कुल 700 हिंदी के छंदों में किया गया है। संपूर्ण गीता के काव्यमय भावानुवाद को धारावाहिक के रूप में अपने पाठकों के लिये प्रकाशित करते हुये आई.सी.एन. को अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।