तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
(श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद)
तृतीय अध्याय (कर्म योग)
(छंद 01-43)
अर्जुन : (श्लोक 1-2)
जर्नादन! ज्ञान अगर है श्रेष्ठ,
कर्म से यदि ऐसा संकेत।
मुझे क्यों कर्म मार्ग में डाल-
रहे जो पीड़ा का समवेत्।। (1)
ज्ञान या कर्म, कर्म या ज्ञान,
भ्रमित करता मुझको यह कथ्य।
कहाँ पर है मेरा कल्याण,
तनिक स्पष्ट करें यह तथ्य।।(2)
श्रीकृष्ण : (श्लोक 3-35)
भ्रमित, निष्पाप, ज्ञान व कर्म,
अलग हैं दोनों ही निष्ठायें।
सांख्ययोगी प्रेरित है ज्ञान,
कर्मयोगी को कर्म सुहाये।। (3)
मनुज, बिन कर्म, न पाता योग,
कर्म से कौन सका है भाग।
सांख्य निष्ठा भी कब उपलब्ध,
मनुज यदि दे कर्मों को त्याग।।(4)
किसी भी काल, कर्म का त्याग,
नहीं क्षण भर को भी है साध्य।
मनुज है सृष्टि नियम आधीन,
कर्म करने को है वह बाध्य ।।(5)
मूढ़ है जन जो वाह्य स्वरूप,
इंद्रियों पर रखता अधिकार ।
किंतु अंतर में विषयासक्त,
दंभ है, यह मिथ्या आचार।।(6)
अहो अर्जुन, तज कर आसक्ति,
इंद्रियों पर रख पूर्ण प्रभाव ।
बिना फल के करता है कर्म,
श्रेष्ठ है एेसा अमित स्वभाव ।।(7)
क्रमशः
विशेष :गीत-गीता, श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद है तथा इसमें महान् ग्रंथ गीता के समस्त अट्ठारह अध्यायों के 700 श्लोकों का काव्यमय भावानुवाद अलग-अलग प्रकार के छंदों में कुल 700 हिंदी के छंदों में किया गया है। संपूर्ण गीता के काव्यमय भावानुवाद को धारावाहिक के रूप में अपने पाठकों के लिये प्रकाशित करते हुये आई.सी.एन. को अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।