तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
जब कोई तमाम रंगों और ख़ुश्बुओं के फूलों और उनकी यकजाई तस्वीर और तासीर की बात कर रहा हो तो आपको समझ जाना चाहिये कि वह हिंदुस्तान की बात कर रहा है।
हिंदुस्तान या भारतवर्ष दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था है। अपना देश दुनिया से सारे देशों से इस मामले में सबसे अलग और ख़ास है कि जितने धर्मों, मज़हबों, पंथों व विचारधाराओं के लोग इस देश में एक साथ रहते, खाते-पीते, उठते-बैठते व सोते-जागते हैं, उतने किसी और देश में नहीं। यह देश अलग-अलग फूलों की क्यारियों में, अलग-अलग रंगों, ख़ुश्बुओं, तहज़ीबों व परंपराओं में सुसज्जित दिखाई देता है लेकिन इन सबके सम्मिलित रंग, स्वर, सुगंध व सभ्यता को पूरा विश्व भारतवर्ष या हिंदुस्तान के नाम से जानता है। हिंदुस्तान का यही आकर्षण सारी दुनिया को बार-बार उसकी ओर खींचता है और हिंदुस्तान का यही चरित्र हमारी सबसे बड़ी पहचान व ताकत है।
हम सब हिंदुस्तानी हैं और हिंदुस्तान राम- कृष्ण का भी देश है और गॉड, वाहे गुरु और अल्लाह का भी। यह देश रघुपति सहाय ‘फ़िराक़ गोरखपुरी, कृष्ण बिहारी ‘नूर’ का है तो सुहैल काकोरवी, तश्ना आज़मी का भी और सरदार पंक्षी और चरण सिंह ‘बशर” का भी। टॉम आल्टर और मार्क ट्रुली तो इस देश की गंगा-जमुनी संस्कृति के ऐसे मुरीद हुये कि वे हिंदुस्तान के ही होकर रह गये।
उर्दू शायरी में भी हमारी इस संस्कृति की विशेषता को तमाम शायरों ने अपने अपने अंदाज़ में लफ़्ज़ दिये हैं। हिंदुस्तान की यह सोंधी सी महक शायरी में भी अपनी पूरी शिद्दत के साथ मौजूद है। आज हम अपने शायरी के इस खूबसूरत सफ़र में तमाम शायरों और उनके लाजवाब शेरों के ज़रिये हिंदुस्तान की उस मिट्टी से गुफ़्तगू करेंगे जो हम सबमें मौजूद है। हमारे देश की एकता और सांझी विरासत को हमारे मोहतरम शायरों ने किस कमाल के साथ उर्दू के इस शानदार इमारत की नींव में स्थापित किया है, यह देखना वाकई बहुत दिलचस्प होगा।
हफ़ीज़ जालंधरी का जन्म वर्ष 1900 में जालंधर में हुआ और उनकी मृत्यु वर्ष 1982 में लाहौर में हुई। उनकी मशहूर ग़ज़ल ‘अभी तो मैं जवान हूँ’ को मलिका पुख़राज ने अपनी आवाज़ देकर उसे मुहसिकी का भी दस्तावेज़ बना दिया। उन्होनें अनेक पुस्तकें उर्दू अदब को दीं जिनमें ‘बहार के फूल’ और ‘चिराग़-ए-सहर’ बहुत चर्चित हैं। वे कहते हैं –
“हफ़ीज़’ अपनी बोली मोहब्बत की बोली,
न उर्दू, न हिन्दी, न हिन्दोस्तानी।”
बिस्मिल अज़ीमाबादी का मूल नाम शाह मोहम्मद हसन था जिनका जन्म वर्ष 1901 में व मृत्यु वर्ष 1978 में पटना में हुई। भारतीय क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल स्वयं एक अच्छे कवि थे लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें फाँसी दिये जाने पर फाँसी पर झूलने से पहले जिस ग़ज़ल ‘सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ को गाया था, उसके शायर स्वयं राम प्रसाद बिस्मिल नहीं थे बल्कि बिस्मिल अज़ीमाबादी थे। बिस्मिल अज़ीमाबादी अज़ीमाबाद के नामचीन शायर थे और उनकी यह ग़ज़ल तो एक क़ौमी तराना ही बन गयी है और हिंदुस्तान के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर है। आइये, इस मशहूर और ब्रिटिश शासन के ताबूत में एक कील अपनी भी ठोंकने वाली इस ग़ज़ल के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी को उनकी इसी मशहूर ग़ज़ल के साथ याद करते हैं –
“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है।।
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार,
ले तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।
वाए क़िस्मत पाँव की ऐ ज़ोफ़ कुछ चलती नहीं,
कारवाँ अपना अभी तक पहली ही मंज़िल में है।
रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में,
लज़्ज़त-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंज़िल में है।
शौक़ से राह-ए-मोहब्बत की मुसीबत झेल ले,
इक ख़ुशी का राज़ पिन्हाँ जादा-ए-मंज़िल में है।
आज फिर मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार बार,
आएँ वो शौक़-ए-शहादत जिन के जिन के दिल में है।
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से,
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है।
माने-ए-इज़हार तुम को है हया, हम को अदब,
कुछ तुम्हारे दिल के अंदर कुछ हमारे दिल में है।
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर,
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है।
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ,
हम अभी से क्यूँ बताएँ क्या हमारे दिल में है।
अब न अगले वलवले हैं और न वो अरमाँ की भीड़,
सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिल-ए-‘बिस्मिल’ में है।”
फ़ज़्ल अहमद करीम फ़ज़ली का जन्म वर्ष 1906 में व इंतक़ाल वर्ष 1981 में हुआ। ‘चश्मा-ए-ग़ज़ल’ और ‘नग़मा-ए-ज़िंदगी’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उनका मानना है कि कलाकार की कला केवल उसके लिये नहीं बल्कि सारी दुनिया के लिये होती है। उनका एकता और हुनर पर कहा गया यह शेर एक मुहावरा बन गया –
“अहल-ए-हुनर के दिल में धड़कते हैं सब के दिल,
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।”
अली जव्वाद ज़ैदी का जन्म वर्ष 1916 में लखनऊ में हुआ और वर्ष 2004 में उनका निधन हो गया। वे प्रसिद्ध शायर, लेखक व आलोचक थे। ‘ग़ुबार-ए-कारवाँ’, ‘हम क़बीला’ एवं ‘दो अदबी स्कूल’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। एकता में वही ग़म वास्तव में ग़म है जो सबका ग़म है। उनका यह शानदार शेर देखिये-
“हम अहल-ए-दिल ने मेयार-ए-मोहब्बत भी बदल डाले,
जो ग़म हर फ़र्द का ग़म है उसी को ग़म समझते हैं।”
‘मेयार-ए-मोहब्बत’ का अर्थ है – प्यार के मानक।
कैफ़ी आज़मी का जन्म आजमगढ़ में वर्ष 1919 में हुआ और उनकी मृत्यु वर्ष 2002 में मुबंई में हुई। मूल नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी और वे उर्दू शायरी में बड़ी ऊँचे पायदान पर मौजूद हैं। जिंदगी को देखने-समझने का नज़रिया भी अनोखा और अपनी शायरी में ज़िंदगी को उतारने का सलीका भी अनूठा। वे तो सारी दुनिया को ही अपना घर समझते थे क्योंकि सिर्फ़ उनके जैसा शायर ही यह कह सकता है –
“मेरी दुनिया में न पूरब है, न पच्छिम कोई,
सारे इनसान सिमट आये खुली बाहों में।”
वर्ष 1921 में लुधियाना में पैदा होने वाले लाजवाब शायर साहिर लुधियानवी किसी तआर्रुफ़ के मोहताज़ नहीं हैं। यह वही शायर है जिसके लफ़्जों की मिठास, ख़ुश्बू और बुनावट ने एक लंबे समय तक शायरी के दीवानों को मंत्रमुग्ध कर रखा था। फ़िल्मी दुनिया में उनका अमूल्य योगदान है और आज भी उनकी कही कोई ग़ज़ल या गीत कहीं सुनाई पड़ता है तो उसकी मधुरता यह अपने आप ऐलान कर देता है कि वह साहिर की विरासत है। वर्ष 1980 में उनका निधन हो गया। उनका यह शेर, जो बाद में फ़िल्म का हिस्सा भी बना, आज भी सबकी ज़ुबान पर है –
“तू हिन्दु बनेगा ना मुसलमान बनेगा।
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा।।”
और एक यह शेर भी देखिये –
“जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है,
जंग क्या मसअलों का हल देगी।”
और यह शेर भी –
“हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़,
ग़र जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही।”
गोपालदास नीरज को हिंदी गीतों का राजकुँवर कहा जाता है। उनकी ख्याति अंतर्राष्ट्रीय है। उनकी कही ग़ज़लें भी जिन्हें उन्होंने हिंदी नाम ‘गीतिका’ दिया है, वे उर्दू शायरी में भी उतनी ही लोकप्रिय हैं जितनी हिंदी साहित्य में। उनका जन्म वर्ष 1925 में हुआ एवं वर्ष 2018 में उनकी मृत्यु हुई। ‘प्राण दिया है’, ‘नीरज की पाती’, ‘नीरज की गीतिकायें’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। एकता पर उनका यह खूबसूरत शेर बहुत मशहूर है –
“अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए,
जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए।”
क्रमशः