सुरेश ठाकुर, कंसल्टिंग एडिटर-ICN
कहानी
मुझे अभी भी समझ नहीं आता कि शादाब के साथ अपने रिश्ते को क्या नाम दूँ ? दोस्ती या मोहब्बत ?
जो भी कहूँ लेकिन क्या एक शादी शुदा औरत के लिए किसी ग़ैर मर्द के साथ इनमें से कोई भी रिश्ता मुनासिब है ?
आज मेरे पास अल्लाह के फ़ज़्ल से सब कुछ है | बेशुमार दौलत, इज़्ज़त, शौहरत और बेपनाह मोहब्बत करने वाला शौहर | लेकिन फिर भी फिर भी दिल के किसी कोने में कोई ख़ालीपन तो ज़रूर था वरना शादाब मेरी ज़िंदगे में इस तरह दाख़िल न हुआ होता |
अगर असलम का एहसास मेरे लिए नशेमन में महफ़ूज़ मासूम परिंदे जैसा है तो शादाब उस वाद-ए-नसीम की मानिंद है जो अपनी जादुई छुअन से उस मासूम परिंदे के एहसास को गुदगुदाती है |
शादाब के साथ मेरी मुलाक़ात को तकरीबन एक साल मुकम्मल हो रहा है | इस एक साल में मै शादाब के साथ कितना जुड़ गई थी | इसका एहसास मुझे उस वक़्त हुआ जब वे सालाना इम्तिहान के बाद वापस अपने घर के लिए रुख़सत होने लगे | लग रहा था जैसे कोई मेरे जिस्म से मेरी जान को जुदा करके लिए जा रहा है | हो सकता है मुझसे जुदा होने का कुछ मलाल उन्हें भी रहा हो लेकिन ज़ाहिर तौर पर वे खुश नजर आ रहे थे | एक अरसे बाद अपने घर वालों के बीच जाने का मौका जो मिल रहा था उन्हें | ऐन रुख़सत के वक़्त दबी ज़ुबान से बोला गया उनका जुमला मुझे कई किस्म की सही और ग़लत फ़हमियों की वजह ज़रूर दे गया, “मैं आपसे मिलने ज़रूर आउंगा भाभी जान |”
शादी से पेश्तर असलम मेरे फूफीज़ात भाई थे | वालिद का छोड़ा हुआ लाखों करोड़ों का कारोबार, जिसकी ज़िम्मेदारी शुरू से ही असलम के कंधों पर रही है | लाहौर की पुश्तैनी हवेली के अलग अलग हिस्सों में असलम के चार भाइयों के अलावा उनकी वालिदा यानी कि मेरी फूफी भी रहती हैं |
कारोबार के सिलसिले में असलम की पाकिस्तान के मुख़्तलिफ़ शहरों में आमद-ओ-रफ़्त रहती है | वे जब भी शेखूपुरा आते तो हमारे घर ज़रूर आते | हालाँकि हमारा गाँव शेखूपुरा से तकरीबन दस मील दूर है | पाँच बहन भाइयों में मैं सबसे छोटी हूँ | बाकी तीनों बहनों की शादी बहुत पहले हो चुकी है | फ़रीदा, निगार और ज़ीनत | बड़े भाई आबिद दुबई में मुलाज़िम हैं | हर महीने अब्बू को इफरायत से पैसा भेजते रहते थे | यही वजह थी कि मेरी बहनों की शादी बड़ी शान-ओ-शौक़त के साथ हो सकी थी | आबिद भाई भी दुबई से आकर शादी में शामिल हुए थे | ख़ूब दिल और ज़ेब खोल कर ख़र्च किया था | लेकिन उसके बाद जब आबिद भाई ने बेसबब पैसा भेजना बंद कर दिया तो घर की माली हालत ख़स्ता होती चली गई |
सांस का मरज़ दिन व दिन अब्बू को अपनी गिरफ़्त में लेता जा रहा था | गाँव की थोड़ी सी ज़मीन की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा अब्बू की लाइलाज बीमारी की नज़्र हो जाता | मजबूरन अम्मी को सिलाई का काम करना पड़ा | लेकिन आमदनी की इस छोटी सी चादर से ज़रूरतों का बड़ा जिस्म ढकना बहुत मुश्किल था | जबकि अम्मी ने कम लाज़िम ख़र्चों पर तो पहले से ही पाबंदी लगा रखी थी | यही वजह थी कि आठवीं जमात के बाद मेरी स्कूली तालीम रोक दी गई | अम्मी चाहती थीं कि मै भी सिलाई के काम में उनका हाथ बटाऊँ |
असलम मुझसे उम्र में तकरीबन बीस साल बड़े रहे होंगे | उनकी इंग्लिश गाड़ी जब हमारे घर के सामने कच्ची गली में आकर खड़ी होती तो मेरा दिल खुशी से और ज़ह्न गुरूर से लबरेज़ हो उठता था | मैं अपनी हमउम्र दोस्तों से बड़े फ़ख़्र से कहती, “जानती है रुख़साना, ये गाड़ी मेरे भाई असलम की है | बहुत अमीर आदमी हैं वो |”
असलम जब भी घर से रुख़सत होते तो मै गाड़ी में बैठ कर गाँव के बाहर तक उन्हें छोड़ने ज़रूर आती | इस वक़्त मैं इस बात का ख़ास तौर पर ख़याल रखती कि कि गाँव के ज़्यादा से ज़्यादा लोग, ख़ासतौर पर मेरी दोस्त ये देख लें कि चाँदनी इंग्लिश गाड़ी में बैठी है |
हालाँकि असलम ने कभी ये अहसास नहीं कराया कि वो अमीर हैं फिर भी उनके आते ही अब्बू और बख़ास अम्मी पर एक अजीब सा तकल्लुफ़ तारी हो जाता था | असलम शायद इसे भांप जाते थे और अपने बेतकल्लुफ़ाना अंदाज़ से इस भारीपन को चंद जुमलों में ही फ़ना कर देते थे |
ख़ुदा जाने उन्हें अच्छी लगती थी या फिर फ़क़त दिल रखने के लिए, वो अम्मी के हाथ की पकी सिवइयां खाना कभी नहीं भूलते थे | मैं अकसर उन्हें ये कहते सुना करती थी, “मुमामी जान, जब भी मेरा सिवइयां खाने को जी करता है, मै शेखूपुरा का टूर बनाकर यहाँ आ जाता हूँ, सचमुच बशुत लज़ीज़ होती हैं आपके हाथ की पकी सिवइयां |” असलम की इस ख़ुशामद पर अम्मी फ़क़त मुस्कुराकर रह जातीं |उनकी मुस्कुराहट जैसे कहती थी कि, “मैं अच्छी तरह जानती हूँ बेटा, तुम ये सब मेरा दिल रखने के लिए कहते हो |”
घर की माली हालत असलम की नज़रों से भी छुपी नहीं रह चुकी थी | लेकिन अगर उन्होंने कभी हमारी कुछ मदद करने की पेशकश की तो अम्मी की ख़ुद्दारी ने उसे कभी कबूल नहीं किया |
घर की मुफ़लिसी ने अम्मी को हद दर्जा चिड़चिड़ा बना दिया था | उधर बचपन भी मुझसे दामन छुड़ाता जा रहा था | बदन दिन व दिन लिबास से बगावत कर रहा था | मेरा जवान होना भी उनके लिए कम फ़िक्र की वजह नहीं थी | मै जानती हूँ, अम्मी मुझे बेपनाह मोहब्बत करती हैं | मगर कभी कभी वो मुझे मर जाने के लिए कोसना भी नहीं भूलती थीं | मैं इसकी वज्ह भी जानती थी |
मेरी उम्र के साथ साथ अम्मी की हिदायतों में भी इजाफ़ा होता जा रहा था | उनकी ढेर सारी हिदायतों में ये भी शामिल हो गया था कि अब मुझे असलम से बहुत सलीक़े से पेश आना है | छेड़छाड़ और हँसी ठिठोली पर सख़्त पाबंदी लगा दी गई थी | मैंने महसूस किया कि असलम ने मेरा ये नया किरदार बहुत पसंद किया और रफ़्ता रफ़्ता उनकी दिलचस्पी भी मुझमें बढ़ने लगी थी | मगर मुझे ये पाबंदियाँ किसी सज़ा से कम नहीं लगती थीं | दिल में उफनते जज़्बातों की पाबंदियों से ख़ामोश बग़ाबत मगर फिर भी ऊपर से ओढ़ा हुआ संजीदगी का मसनुई लबादा |
और एक दिन वो लम्हा भी आ टपका जिसकी किसी को ख़्वाब में भी उम्मीद न थी | असलम ने अम्मी और अब्बू के सामने साफ़ अल्फ़ाज़ में अपनी ख़्वाहिश ज़ाहिर कर दी कि वो मुझे पसंद करते हैं और मुझसे शादी करना चाहते हैं |
हैरानी का आलम ये कि इब्तिदा में तो किसी को असलम की बात पर यक़ीन ही नहीं हुआ | लेकिन जब उन्होंने बताया कि उनका फैसला जल्दबाज़ी का नहीं बल्कि काफ़ी सोच समझ कर लिया हुआ है और उनके इस फैसले में उनकी अम्मी यानी कि मेरी फूफी की रज़ा भी शामिल है तो अम्मी और अब्बू ने बगैर हील हुज्जत हाँ कर दी |
शादी के मआनी से ला-इल्म होते हुए भी मैं इस लफ़्ज़ का सुरूर अपने अंदर महसूस कर रही थी | उसी दौरान मुझे वक्फ़ियत हुई कि मैं खुली आँखों से भी ख़्वाब देखने का हुनर रखती हूँ | शादी का ख़याल आते ही संगेमरमर की चादर में लिपटी असलम की कोठी, रेशमी परदे, मखमली कालीन, मुलायम गद्दे, रंग बिरंगे फ़ानूस और पोर्टिको में खड़ी विदेशी गाड़ी की तस्वीरें मेरी आँखों के सामने रक्स करने लगतीं | मेरी अम्मी अकसर असलम की अमीरी का इसी तरह तस्करा किया करती थी |
ख़्वाब के हक़ीक़त में तब्दीली का मैं बेसब्री से इंतज़ार करने लगी | और फिर एक दिन इंतेज़ार का वो सिलसिला भी खत्म हुआ | मैं दुल्हन बनकर असलम के साथ उसी इम्पोर्टिड गड़ी में रुख़सत हुई | उस वक़्त मैं अपने आप को दुनिया की सबसे ख़ुशकिस्मत लड़की समझ रही थी | महसूस हो रहा था जैसे जन्नत मेरे क़दमों में है |
असलम ने आज तक मुझे किसी चीज़ की कमी का अहसास नहीं होने दिया | ख़ुदा गवाह है ! लफ़्जों में ज़रूरत ज़ाहिर करना तो दूर क्र्र बात है, अगर उन्होंने मेरी आँखों में भी कोई ख़्वाहिश पढ़ ली होगी तो वो शय सात समंदर पार से भी लाकर मेरे क़दमों में डाल दी होगी |
लेकिन इधर मेरे अंदर एक कमज़ोरी रही है कि मैं आज तक असलम से खुलकर पेश नहीं आ सकी हूँ | उनके रूबरू होते ही एक अजीब सी हिचकिचाहट तारी हो जाती है मुझपर और लाख कोशिश के बावजूद उससे निजात पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं हो पाता है |
ज़ह्नी तौर पर एक शौहर की शक्ल में कुबूल करके मेरे हाथ उनके क़दमों की जानिब ज़रूर बढ़ गए होंगे लेकिन रूमानी लम्हों में भी एक मर्द की शक्ल में कुबूल करके अपने होटों से उनके होटों की तपिश बाँट सकने की पहल मुझसे आज तक नहीं हो सकी है |
इसकी वजह…… ?
सच कहूँ तो मैंने आजतक इसकी वजह तलाशने की कोशिश ही नहीं की | मुझे लगता था शायद ये रिश्ते ऐसे ही चलते होंगे | लेकिन शादाब से दोस्ती जैसा रिश्ता क़ायम हो जाने के बाद मुझे इतना इल्म ज़रूर हुआ कि एक ख़ास उम्र के बाद लोग दिल की जगह दिमाग से मोहब्बत करने लगते हैं | असलम के साथ भी ऐसा ही था |
ज़िंदगी जैसे वक़्त की पाबंदियों में क़ैद होकर रह गई है | काम के वक़्त काम और मोहब्बत के वक़्त मोहब्बत | बंधी बंधाई सी ज़िंदगी में अपनी तरफ़ कोई पहल करने में डर लगता है कि कहीं कुछ ऐसा न हो जाए जिसे असलम पसंद न करें | शायद यही ख़ौफ़ वो बिना है जो मुझे असलम के साथ खुलकर पेश आने में दीवार है |
शादी के बाद मुझे आज तक कोई ऐसी रात याद नहीं जिसे हमने यूँ ही चुहलें करते हुए गुज़ार दिया हो | मेरे चेहरे को अपने हाथों में लेकर असलम ने कोई रूमानी शेर पढ़ा हो, मुझे याद नहीं |
असलम शुरू से ही मुझे शौहर कम और किसी मदरसे के मास्टर ज़्यादा लगे | सुब्ह जागने से लेकर रात को सोने तक उनकी हिदायतों का सिलसिला अब भी बदस्तूर जारी रहता है | हालाँकि मैं ये भी जानती हूँ कि उन हिदायतों में मेरे लिए बेहतरी ही छुपी होती है मसलन मुझे कैसे रहना चाहिये, कैसे उठना बैठना चाहिये, किस वक़्त क्या खाना और क्या पहनना चाहिये, हाई सोसायटी के क्या तौर तरीक़े हैं, मुझे लोगों से किस तरह पेश आना चाहिये बगैरह बैगरह | यानी कि कुल मिला कर एक लम्बी फ़हरिश्त है असलम की हिदायात की जो मेरी ज़िंदगी में घुटन का वाइस बन गई हैं |
इसी दौरान मेरी मुलाक़ात शादब से होती है | शादाब, असलम के जिगरी दोस्त शाद के छोटे भाई है | ग्रेजुएशन के इम्तिहान के सबब डेढ़ दो महीने उन्हें लाहौर में ही रहना था | असलम को ये गवारा न हुआ कि उनके रहते हुए दोस्त का भाई लहौर में किराये का मकान तलाश करे, लिहाज़ा वो शादाब को घर पर ले आए | मुझे सख़्त हिदायत थी कि शादाब को हर मुनासिब सहूलत फराहम करने और उनकी मेहमांनवाज़ी में कोई कोताही न बरती जाए |
शुरूअ में शादाब बहुत शर्मीले थे | वे अपने कमरे से बाहर तभी निकलते जब किसी काम के सबब उन्हें ये लाज़मी होता | मुसल्सल पढ़ाई में मसरूफ़ शादाब को उनका नाश्ता, खाना या ज़रूरत की दीगर चीज़ें उनके कमरे में ही मुहैया करा दी जाती थीं | बाज़ दिन तो वो सुब्ह से शाम तक कमरे से बाहर नहीं निकलते | ऐसे में मेरा फ़िक्रमंद होना वाज़िब और लाज़मी था | ऐसे में मै ख़ुद उनके कमरे में पहुँच कर उनकी सेहत और ज़रूरत दर्याफ़्त करती | शर्मीले शादाब अमूमन तकल्लुफ़ाना तबस्सुम के साथ ‘न’ में सर हिला देते |
“ऊँची तालीम बहुत दुश्वार होती है क्या”
“नहीं” दो हरफ़ी जवाब में ही काम चला लिया शादाब ने
“आप दिन रात किताबों में चेहरा छुपाये रहते हैं…..इसलिये पूछ लिया”
“इम्तिहान भर की ही तो बात है भाभी जान…..उसके बाद तो…..”
बाकी का जुमला शादाब की आँखों की चमक ने मुकम्मल किया जिसमें इम्तिहान के बाद के ढेर सारे मंसूबे नुमाया हो रहे थे |
मुझे अच्छी तरह से याद है वो दिन | मैं छत पर नन्हें परिंदों के लिए आब-ओ-दाने का बंदोबस्त कर रही थी कि तभी मुझे अपने पीछे किसी के तेज़ क़दमों की आहट महसूस हुई | इससे पेशतर कि मैं पीछे मुड़कर देखती और कुछ समझ पाती, एक पतंग न जाने कहाँ से आकर मुझ से लिपट गई | मैंने नज़रें उठा कर देखा तो पाया कि शादाब मेरे सामने खड़े हैं | तकरीबन हाँफ़ते हुए |
नज़रें मिलते ही वे अपनी इस बचकानी हरकत पर बुरी तरह झेंप गए | शादाब के दिल में एक बच्चे को मचलते देख मेरे अंदर का सोया बचपन भी कुलबुलाने लगा |
“पतंग उड़ाने का शौक़ है आपको ?” लिपटी पतंग को अपने जिस्म से छुड़ाकर शादाब के हवाले करते हुए मैनें पूछा |
“हाँ भाभी जान” उनकी अल्फ़ाज़ बयानी का ताव उनके शौक के मयार का गवाह था |
“मुझे भी है” शादाब के जोश के पेश-ए-नज़र मेरे मुँह से भी ये लफ़्ज़ बे-कोशिश फिसल गए |
“सच भाभी जान” हैरानी भरी ख़ुशी से रौशन शादाब के चेहरे को कुछ घड़ी के लिए यूँ ही देखती रह गई मैं |
शादाब के पतंग उड़ाने के हुनर का कायल होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा मुझे | आसमान को छूती पतंग शादाब की उंगलियों की हर जुम्बिश का मतलब बख़ूबी समझ रही थी | दफ़अतन मुझे महसूस हुआ कि मेरा अपना वजूद उस पतंग के साथ घुलमिल कर यकसाँ हो गया है और मै शादाब की उंगलियों की ताल पर रक्स करती हुई दुनियावी रस्म-ओ-रिवाज की पाबंदियों को ठेंगा दिखा रही हूँ | निगाह की हद तक फैला आसमान मानो मेरी परवाज़ का इम्तिहान लेने पर आमादा है | मगर न तो मुझे ऊँचाई की दहशत है और न ही हवा का ख़ौफ़ | शादाब के हाथों में डोर का होना मुझे मुकम्मल तौर पर महफ़ूज़ होने का अहसास करा रहा है | लग रहा है जैसे मैं जन्नत की सैर पर हूँ | एक अरसे के बाद हासिल हुई खुली हवा की इस आज़ादी का मैं भरपूर लुत्फ़ उठा लेना चाहती हूँ |
उसके बाद तो ये सिलसिला शादाब के रूख़सत होने तक मुसलसल जारी रहा । असलम की ग़ैर मौजूदगी में जब भी वक़्त मिलता, मेरे अंदर का शरारती बच्चा शादाब के करीब पहुँच जाता । पतंग के अलावा परियों और शहजादों के क़िस्से, लतीफ़े और मुख़तलिफ़ किस्म के खेल मसलन साँप सीढ़ी, लंगड़ी चौक, कंचे कौड़ी बग़ैरह हमारी ख़ुशी की ख़ुराक़ बन गये थे ।
बारिश की बूँदों में भीगना, चाँदनी रात में तारों के शुमार की कोशिश, मासूम परिंदों से मुस्तक़बिल की दरयाफ्त जैसी बातें भी हमारे खेल में शामिल थीं ।
हालाँकि शादाब के साथ इस रिश्ते में अपनी हदों और रिश्ते की पाकीज़गी का दोनों ही तरफ़ से पूरा पूरा ख़याल रखा गया था मगर फिर भी सोसायटी और असलम की नज़र तो ये रिश्ता एक गुनाह ही रहेगा ।
लेकिन अपने दिल का क्या करूँ मैं, जो इस रिश्ते को गुनाह मानने से साफ़ इनकार करता है ।
कशमकश के एक अजीब सी दोराहे पर आकर खड़ी हो गयी हूँ मैं ।
क्या ये रिश्ता वाकई गुनाह है ?
और अगर गुनाह है तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है ?
‘मैं’, ‘हालात’ या ‘हमारे मुआशरे के क़ायदे क़ानून’ ?