‘समाज कैसे यात्रा करता है?’ प्रश्न रोचक था लेकिन अत्यंत गंभीर भी। जब यह प्रश्न मेरे सामने आया था तो कुछ देर तक तो मैं मात्र प्रश्न को समझने और उसकी तह में जाने की कोशिश करता रहा और कुछ पलों के गहन आंकलन के पश्चात् एक समाज विज्ञानी की भाँति विचार करने के आधार पर जो कुछ शब्दों में सामने आया, वह कुछ इस प्रकार था,” समाज का औसत स्वरूप एक भेड़ के समकक्ष होता है। यह मात्र या तो अपने आगे चलने वाले का अनुसरण करता है अथवा पीछे से दौड़ाये जाने के कारण आगे बढ़ता है।” अर्थात ‘लालच’ और ‘भय’, दो ऐसे कारक हैं जो किसी भी समाज को गति देते हैं।
अब पहले प्रश्न से भी बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर वह कौन सी वस्तु है जो ‘मशाल’ भी है और “कुल्हाड़ी” भी। वह वस्तु क्या है जो समाज को आगे खींच भी सकती है और पीछे से धकेल भी सकती है। मैंने काफी विचार विमर्श किया तो मुझे स्पष्ट हुआ कि वह वस्तु लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अर्थात मीडिया अर्थात पत्रकारिता ही हो सकती है और तब मैंने महसूस किया कि एक जीवित समाज में मीडिया की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
जब हम एक मरते हुये व्यक्ति को भी उसके जीवित रहने की उम्मीद को बचाये रखने हेतु हम सब कुछ अच्छा होने का भरोसा दिलाते हैं तो क्या दुनिया का कोई धर्मशास्त्र उसे झूठ समझेगा? कहने का अर्थ सिर्फ़ इतना है कि सत्य जैसे ही कसैला, कर्कश और अमंगलकारी होने लगता है, वह मात्र एक अकल्याणकारी तथ्य बन जाता है और उसका सच समाप्त हो जाता है। जिस प्रकार सत्य के साथ कल्याण आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है, उसी प्रकार मीडिया के साथ सकारात्मक सामाजिक चेतना का योग परम आवश्यक है।
आज का मीडिया स्वयं भटका हुआ है। टी.आर.पी. की अंधी दौड़ में मीडिया निर्मम, निर्दयी और केवल स्वयं से प्रेम करने वाले धूर्त व्यापारियों के हाथों का हथियार मात्र बन कर रह गया है। कहीं-कहीं तो मीडिया तथाकथित लोकतान्त्रिक सड़कों पर चहलकदमी करते स्वतंत्र देश के सभ्य और सुरक्षित नागरिकों की पिक-पाकेटिंग,चेन-स्नैचिंग, बलात्कार से लेकर हत्या तक की सुपारी लेता दिखाई देता है।