काकोरी ट्रेन एक्शन के सौवें वर्ष पर दस्‍तावेजों की लगी प्रदर्शनी

क्रांति‍गाथा
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– काकोरी एक्शन और भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के सही इतिहास और विरासत से कराया अवगत
-क्रांतिवीर राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ और साथियों से संबधित दस्‍तावेजों ने इति‍हास के गुम पन्‍नों से मिलाया
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अंबाह, मुरैनाः चंबल संग्रहालय, पंचनद द्वारा ‘काकोरी ट्रेन एक्शन शताब्दी वर्ष समारोह’ के दो दिवसीय आयोजन के आखिरी दिन नई पीढ़ी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्णिम इतिहास में दर्ज महान क्रांतिवीर राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ और साथियों से संबधित पत्रों, डायरी, टेलीग्राम, तस्वीरों और अन्‍य मुकदमें से जुड़ी दुर्लभ फाइलों, दस्तावेजों की अम्बाह पीजी कालेज सभागार में लगी प्रदर्शनी में रूबरू हुई। चंबल संग्रहालय, पंचनद के महानिदेशक और महुआ डाबर एक्शन के महानायक के वंशज डॉ. शाह आलम राना कहा कि काकोरी ट्रेन एक्शन के सौवें वर्ष अमर शहीद राम प्रसाद “बिस्मिल” के खुफिया संगठनों के घटनाक्रम, उनके विचार और लक्ष्य के साथ स्मरण किए जाने की बड़ी जरूरत है। काकोरी एक्शन और भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के सही इतिहास और विरासत को जानना नई पीढी का हक है। आयोजन के दौरान पी.जी. कालेज अम्बाह, श्वेता पब्लिक स्कूल अम्बाह, सरस्वती स्कूल अम्बाह, ग्रेस अकादमी स्कूल अम्बाह आदि स्कूल- कालेजों के छात्र- छात्राओ ने प्रदर्शनी का अवलोकन किया।
कलम और पिस्तौल वाले क्रांति नायक हैं रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ :
क्रांति युद्ध को गति के लिए रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ जानते थे कि हथियार ही नहीं साहित्य प्रचार भी एक जरूरी माध्यम है वे वैचारिक जनचेतना बढ़ाने को घोर पक्षधर थे। यह बिस्मिल का आजमाया हुआ नुस्खा था। उनको पिस्तौल के साथ कलम में भी बहुत महारत हासिल थी। रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ बचपन से ही कविताएं, शायरी और राष्ट्रीय विचारधारा का लेखन करने लगे थे। बिस्मिल को हिंदी, अंग्रेजी, फारसी और उर्दू में महारत हासिल थी। बिस्मिल, क्रांति की ज्वाला जलाने वाले क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य के नाम से सुविख्यात गेंदालाल दीक्षित के संपर्क में आए। पंडित गेंदालाल दीक्षित ने ‘शिवाजी समिति’ और ‘मातृवेदी’ नाम से खुफिया दल बनाकर नौजवानों में ही नहीं, चंबल के बागी सरदारों को भी आजादी आंदोलन का सहयात्री बना दिया। गेंदालाल दीक्षित ने बिस्मिल को सशत्र क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण दिया।
सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में नए रंग-रूटों के भर्ती के लिए बिस्मिल को हथियारों की निरंतर आवश्यकता रहती थी। तब बिस्मिल के जेहन में आया कि देश में युवाओं में जोश भरने के लिए वह एक पुस्तक लिखेंगे। ‘अमेरिका का स्वतंत्रता का इतिहास’ और पुस्तक के बेंचने से जो धन प्राप्त हो उससे हथियार खरीदे जाएं। पुस्तक के लेखन में स्वामी सोमदेव ने भी पूरी सहायता की। पुस्तक के प्रकाशन के लिए रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ ने अपनी माता मूलमती से 200 रुपये व्यापार करने के बहाने से लिया। किताब की चर्चा चारो ओर होने लगी, सरकार ने पुस्तक को जब्त कर लिया। कुछ पुस्तकें बिस्मिल ने एक सूखे कुंए में छिपा दीं। इसी कुंए में ‘शिवाजी समिति’ के क्रांतिकारी सदस्यों के हथियार भी छिपाए जाते थे।
अंग्रेजी सरकार चौकन्ना थी। गेंदालाल दीक्षित सहित तमाम क्रांतिकारी पुलिस के शिकंजे में आ गए। तब बिस्मिल भूमिगत होकर कुछ दिन अपने बहन की ससुराल कोसमा में नौकर बनकर रहे तथा कुछ दिन दादाजी के गांव बरबाई में जाकर खेती-किसानी की। इस दौरान बिस्मिल ने दो-तीन पुस्तकें लिखीं। कुछ समय बाद वह अपने ननिहाल पिनाहट (आगरा) आ गए और यहीं पर उन्होंने ‘सुशील माला’ नाम से प्रकाशन शुरु किया। ‘सुशील माला’ प्रकाशन से पहली पुस्तक ‘वोल्शेविकों की करतूत’ छपी। यह रूस के क्रांतिकारियों के जीवन पर बिस्मिल का लिखा उपन्यास था। फिर ‘कैथेराइन’ नामक पुस्तक लिखी। यह भी रूस की आजादी से संबंधित थी। एक अन्य पुस्तक ‘मन की लहर’ राष्ट्रीय गीतों का संकलन है। इस पुस्तक के प्रकाशन की आर्थिक सहायता शाहजहांपुर की तहसील तिलहर के बाबू रघुनाथ सहाय एडवोकेट ने दी थी। अतः बिस्मिल ने, अपनी यह पुस्तक उन्हें ही समर्पित की थी। परिस्थितियां ऐसी बनी कि सबूत मिटाने के लिए बिस्मिल लिखी गई पांडुलिपियां को आग के हवाले करना पड़ा।
राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ द्वारा लिखी पुस्तके
1,मैनपुरी षड्यंत्र- 22जनवरी, 1919 को बिस्मिल के साथ प्रयाग में एक ऐसी अप्रत्याशित घटना हुई जिसमें उन्हें आभास हुआ कि साथियों ने विश्वासघात किया है। इस घटनाचक्र को मध्य में रखकर उन्होंने यह पहली पुस्तक कोसमा (मैनपुरी) में लिखी थी। कुछ लोगों के मतानुसार बिस्मिल ने यह पुस्तक आर्य भास्कर प्रेस, आगरा से उस समय प्रकाशित कराई थी जब वो पिनाहट आगरा में रह रहे थे।
2, अमेरिका का स्वतंत्रता का इतिहास- इस पुस्तक के लेखन में स्वामी सोमदेव का भी सहयोग बिस्मिल को प्राप्त हुआ था।
3, मन की लहर- यह राष्ट्रीय कविताओं का संकलन है।
4, वोल्शेविकों की करतूत- रूस की वोल्शेविक क्रांति पर उपन्यास था जिसे बिस्मिल ने प्रो. राम के छद्म नाम से प्रकाशित कराया था।
5, यौगिक साधन- बिस्मिल ने अरविंद घोष की बंगला पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद किया था।
6, क्रांति गीतांजलि- इसमें देशप्रेम के गीत और गजलें हैं।
7, कैथेराइन या स्वाधीता की देवी- बिस्मिल की इस पुस्तक को राष्ट्रीय ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय, कलकत्ता से सन् 1922 में उमादत्त शर्मा ने प्रकाशित किया था।
8, स्वदेशी रंग- कभी यह पुस्तक आर्य समाज भवन शाहजहांपुर में थी।
9, क्रांतिकारी जीवन-बिस्मिल की इस पुस्तक के कुछ ही अंश उपलब्ध हैं।
10, चीनी षड्यंत्र-(चीन की राजक्रांति)
11, पंडित गेंदालाल दीक्षित- बिस्मिल ने यह पुस्तक अपने गुरू के बारे में लिखी थी जो प्रकाशित नहीं पाई थी। इसका संपादित अंश प्रभा पत्रिका में सितंबर 1924 के कवर स्टोरी के तौर पर छपा था। जिसे बिस्मिल ने अज्ञात नाम से लिखा था।
12, निज जीवन की एक छटा- फांसी के पहले गोरखपुर जेल में लिखी आत्मकथा।
यह पुस्तकें सिर्फ बिस्मिल के वैचारिका क्रांतियुद्ध का लेखा जोखा भर नहीं बल्कि उस दौर के देश-दुनिया के सुगलते प्रश्नों से हमारा सामना होता है। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन संविधान भी आजाद और भगत सिंह के दौर में आधार ही नहीं बना बल्कि पार्टी के नाम में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ने के साथ कोई तब्दीली नहीं की गई। यही नींव आजादी की बुनियाद बनी।
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हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को चलाने का पूरा दारोमदार बिस्मिल के कंधे पर आ गया था। सभी क्रांति केन्द्रों को संचालित करने में आर्थिक संकट आने लगा तब 25 दिसंबर 1924 को पीलीभीत जिले के बमरौली गांव में रईस बलदेव प्रसाद के घर डकैती डाली जो कि सूदखोरी और शक्कर की खण्डसार का काम करते थे। फिर इसी जिले में 9 मार्च 1925 को बिचपुरी गांव में जमींदार टोटी कुर्मी के घर तथा 24 मई 1925 को प्रतापगढ़ जिले के द्वारकापुर गांव में शिवरतन वैश्य के यहां डाली गई। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के नेतृत्व में डाली गई डकैती में कुछ खास हाथ नहीं आया। पार्टी चलाने के लिए जहां पैसों की सख्त जरूरत थी वहीं गांव में डाका डालने से पहचाने जाने का खतरा और जनता में पकड़े जाने पर इकबाल कम होने के डर से नई रणनीति पर कार्य हुआ।
माउजर की चाहत और काकोरी ट्रेन डकैती
क्रांतिकारियों के ऐक्शन के लिए हथियारों की मांग बढ़ने लगी तो शचीन्द्रनाथ बख्शी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई। वे उस समय बनारस में तैराकी संघ के मंत्री थे। दल के अन्य कुशल तैराक और निशानेबाज थे केशव चक्रवर्ती। तैराकी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने प्रसिद्ध तैराक केशव चन्द्र चक्रवर्ती और उनके साथ एक पुरोहित नौजवान को मुसलमान बनाकर शचीन्द्रनाथ बख्शी ने जर्मनी भेजा। छह महीने जर्मनी में रहने के दौरान किसी तरह विदेश की धरती से क्रांति की अलख जगा रहे प्रसिद्ध क्रांतिकरी नेता एमएन राय से संपर्क हुआ। एमएन राय के जरिए ही माउजर पिस्तौल की डील कर ये दोनों क्रांतिकारी सन् 1925 के पूर्वार्द्ध में भारत लौट आए। साथ ही उस जर्मन मालवाहक जहाज का नाम भी मालूम कर आए। जिस पर माउजर की खेप कलकत्ता बंदरगाह तक आनी थी। कंसाइनमेंट आने में और इसी बीच उसे छुड़ाने के लिए रुपए की सख्त जरुरत थी। समुद्र में नगद दाम देकर पिस्तौलों की खेप लेनी थी। उन दिनों माउजर पिस्तौल की कीमत 75 रुपये थी। फिर भी माउजर के जखीरे के लिए कई हजार रुपयों की तत्काल जरुरत थी।
क्रांतिकारियों का सहयोग करने के बजाए प्रमुख लोग उनके साए से कतराते थे। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में यह तय हो चुका था कि अब कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं लूटी जाएगी। 7 अगस्त 1925 को काकोरी एक्शन की रणनीति के लिए 11 साथी शाहजहांपुर में एकट्ठा हुए। क्योंकि आर्मी के नेता रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ थे। शचीन्द्रनाथ बख्शी, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां, मन्मथनाथ गुप्त, केशवचंद्र चक्रवर्ती, मुकुंदीलाल गुप्ता, मुरारीलाल, बनवारी लाल और कुंदन लाल शाहजहांपुर में बिस्मिल से मिले। कई जगहों पर विचार किया गया कि रुपया कहां लूटा जाए? तब इलाहाबाद बैंक लूटने का भी विचार हुआ। बैंक डकैती से पहले कार चलाने वाला जब कोई नहीं मिला तो यह एक्शन टल गया। आखिर में काकोरी के पास 8 डाउन सहारनपुर से लखनऊ आने वाली पैसेंजर ट्रेन का अंग्रेजी खजाना लूटने का निश्चय हुआ। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ इस पैसेंजर ट्रेन की पहले ही रेकी कर चुके थे। मीटिंग के बाद सबके लिए मुकंदीलाल ने खिचड़ी बनाया और वह घी का डब्बा चंबल से लेकर ही गए थे।
कुंदनलाल को अचानक से दस्त आने लगा और वे बीमार पड़ गए। उन्हें शाहजहांपुर छोड़कर बाकि दस क्रांतिकारी योद्धा लखनऊ चले आए। लखनऊ में सब अलग-अलग जगह ठहरे। लखनऊ पहुंचने के अगले दिन शाम को 8 अगस्त, 1925 को काकोरी स्टेशन पर जाने पर मालूम हुआ कि ट्रेन छूट चुकी है। तो सबके सब पैदल लौट पड़े। दूसरे दिन 9 अगस्त, 1925 को दोपहर को ही काकोरी पहुंच गए। शाम के करीब पौने सात बजे अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और शचीन्द्रनाथ बख्शी ने सेकेंड क्लास टिकट नंबर 0900,0901,0902लेकर ट्रेन में सवार हो गए। बाकि राम प्रसाद बिस्मिल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, मुकुंदीलाल, चंद्रशेखर आजाद, बनवारी लाल, मन्मथनाथ गुप्त पूरी ट्रेन में बंटकर सवार। सेकेंड क्लास में सवार तीनों क्रांतिकारियों ने सुनसान जगह पर चैन पुलिंग कर ट्रेन रोक दिया। बाकि साथियों ने गार्ड जगन्नाथ शर्मा को कब्जे में लेकर हड़बड़ी में एक संदूक मुकुंदीलाल ने गार्ड के डिब्बे में चढ़कर नीचे उतार दिया
महज पैंतीस मिनट में सरकारी खजाना बड़ी आसानी से लूट लिया गया। डकैती के दौरान हरदोई के अहमद अली नामक ट्रेन यात्री की गोली लगने से मौत हो गयी। पैसेंजर ट्रेन ड्राइवर मिस्टर यंग ने अपने समय रात्रि 7.45 के बजाय 8.37 पर लखनऊ पहुंचाया। 8.45 मिनट पर काकोरी ट्रेन डकैती की पुलिस को मौखिक सूचना चारबाग के स्टेशनमास्टर मिस्टर जोन्स ने दी। इधर क्रांतिकारी अंधेरे में खेतों के बीच से गुजरते हुए रात्रि के करीब नौ बजे लखनऊ चौक पहुंचे। विक्टोरिया पार्क में एक सुनसान जगह पर चमड़े का बैग काटकर अधपटे कुएं में फेंक दिया। धनराशि 4679 रुपये 2 आना 2 पैसे थी। लेकिन विभिन्न अखबारों ने 10 हजार रूपये उड़ाने की खूब सनसनी बनाकर भ्रामक खबर प्रकाशित की। इधर बंगाल की खाड़ी में डिलीवरी लेने शचीन्द्रनाथ बख्शी जान पर खेल कर तैरते हुए गए और नकद रुपए देकर माउजर और कारतूस की खेप ले आये।
गिरफ्तारी
काकोरी ट्रेन एक्शन में 26 सितंबर 1925 में बड़े पैमाने पर क्रांतिकारियों की गिरफ्तारियां हुईं। ‘देश के नररत्न गिरफ्तार’ शीर्पक से ‘प्रताप’ ने इस बारे में बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की। इन पर आईपीसी की दफा 121 ए, 120बी और 396 डकैती कत्ल के साथ लगाया गया।
काकोरी केस का मुकदमाः
बौखलाई फिरंगी सरकार ने पकड़े गए क्रांतिकारियों पर ‘क्रांतिकारी षड्यंत्र केस’ का मुख्य और पूरक केस अलग-अलग चलाया गया। लखनऊ के कैसरबाग स्थित रौशनद्दौला कचेहरी में काकोरी के क्रांतिवीरों की सुनवाई के दौरान हजारों का जनसैलाब उमड़ पड़ता था। जिससे फिरंगी सरकार को यह डर सताने लगा कि युवाओं की भीड़ जोश में आकर कहीं क्रांतिकारियों को छुड़ा न ले जाए। लिहाजा घबराकर आनन-फानन में काकोरी केस की सुनवाई कर रहे जज ने कोर्ट को ही स्थानांतरित कर दिया। गौरतलब है कि उन दिनों हजरतगंज का रिंग थियेटर सबसे सुरक्षित स्थान माना जाता था। जो कि अंग्रेज अधिकारियों का ऐशगाह हुआ करता था। 6 अप्रैल 1927 को काकोरी केस का फैसला सुनाने के बाद जज ए. हैमिल्टन बाद सीधे चारबाग रेलवे स्टेशन बंबई गया और वहां से सीधे लंदन चला गया।
जेल से फरारी का प्रयास
लखनऊ में मुकदमें के दौरान चंद्रशेखर आजाद, मास्टर सूर्यसेन, सरदार भगत सिंह आदि साथियों ने हमलाकर अपने साथियों को छुड़ाने का मंसूबा बनाया था लेकिन वह कामयाब न हो सका। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ को यकीन था कि उन्हें फांसी नहीं होगी। उनके साथी जान पर खेल कर बाहर निकाल ले जाएंगे। बिस्मिल को जेल से छुड़ाने की तरकीबें कई बार नाकाम हो गयी तब आखिरकार बिस्मिल ने खुद ही जेल से भागने से मना कर दिया, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को दो दिन पहले फांसी पर क्यों लटकाया गया? इस बारे में काकोरी केस के प्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त के भाई क्रांतिकारी महमोहन गुप्त ने जो रहस्योद्घाटन किया है। उनका मत है कि क्रांतिकारियों ने यह तय कर लिया था कि 18 दिसंबर 1927 की सर्द रात को गोंडा जेल पर हमला करके राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को छुड़वा लिया जाएगा। जेल अधिकारियों को जब यह खबर लगी तो उन्होंने 17 तारीख को ही उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया। 19 दिसंबर की सुबह राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर, अशफाक उल्ला खां को फैजाबाद जेल, और ठाकुर रोशन सिंह नें मलाका जेल (इलाहाबाद) में सर्वोच्च बलिदान दिया।
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आज बरबाई जाएंगे: अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल के बलिदान दिवस पर सलामी देने महुआ डाबर एक्शन (10 जून 1857) के महानायक पिरई खां वंशज क्रांतिकारी दस्तावेजी लेखक डॉ. शाह आलम राना अपने साथियों सहित क्रांतियोद्धा बिस्मिल के पैतृक गांव बरबाई जाएँगे। साथ ही अमर शहीद सम्मान सेवा संघ के सेवक 19 दिसंबर को आने वाली मसाल यात्रा का बिस्मिल स्मारक अम्बाह में स्वागत करेंगे और अम्बाह स्मारक से बिस्मिल जी के पैतृक गांव वरबाई तक लेकर चलेंगे साथ ही यात्रा के अंत में पुष्पांजली अर्पित करेंगे।

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