तरुण प्रकाश, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
मेरे बेटों,
मैं तुम्हारे पूर्वजों का भी पूर्वज और तुम्हारी संतानों की भी संतानों का भविष्य तुम्हारा देश, भारतवर्ष आज तुम्हें बहुत विवश होकर यह पत्र लिख रहा हूँ। इस पत्र के बहुत से अक्षर धुले हुये हैं क्योंकि इस पत्र को लिखने से पहले मैं हज़ार बार रोया हूँ। मैं सारी दुनिया को प्रेम, सद्भावना और शान्ति का संदेश देने वाला वही विश्वगुरू भारत हूँ जिसकी बुनियाद में ही अखंडता और एकता है लेकिन पिछले कई दशकों से मुझे तुमसे मात्र घोर निराशा ही मिली। आज मुझे महसूस हो रहा है कि मैं मात्र भूमि का एक टुकड़ा हूँ।
पुत्रों, तुम्हारे षडयंत्र एक के बाद एक नये नये घिनौने मुखौटे पहन कर सामने आते रहे और कभी जातियों के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर तो कभी सुविधा के नाम पर मैं सुलगाया जाता रहा। शिया सुन्नी समुदायों का विवाद, हिन्दू मुस्लिम संप्रदायों का विवाद, अगड़े और पिछड़ों का विवाद, आरक्षित और अनारक्षित का विवाद, मंदिर और मस्जिद का विवाद, कोई न कोई विवाद सदैव तांडव करता ही रहा मेरी छाती पर। हर बार मैं थोड़ा और कमज़ोर होता गया- थोड़ा और खत्म होता गया।
खाप पंचायतों के तानाशाही खूनी फरमान, अर्थहीन कुल प्रतिष्ठा के नाम पर अपने ही कलेजों के टुकड़ों की हत्यायें, रोटी और भरणपोषण से वंचित तलाकशुदा मुस्लिम बच्चियों की पथराई आँखें, तीन तलाक जैसी कुप्रथाओं का चलन, बच्चियों की भ्रूण हत्यायें, बार बार न्यायिक व्यवस्थाओं का चौराहों पर कथित विरोध के नाम पर बलात्कार करता जन समुदाय, जाट आंदोलन, राजपूत अांदोलन, गुर्जर आंदोलन, असहिष्णुता के झुठे आधार पर और न जाने कितने ही निहित स्वार्थों की पूर्ति के नाम पर देश की थाली के सीमित और सभी को उपलब्ध कराने योग्य भोजन पर केवल अपनी उदरपूर्ति के लिये हिंसक झपट्टे, ….मेरे पुत्रों, सबने अपने संप्रदाय के लिये सोचा, सबने अपनी जाति के लिये सोचा और सबने मात्र अपने निजी स्वार्थों के लिये सोचा लेकिन किसी ने भी कभी मेरे लिये, अपने देश के लिये नहीं सोचा। मेरे बेटों, मैं तो एक ऐसा अभागा बाप हूँ जो भूखा रहकर भी, बार बार अपमानित होकर भी और निरंतर घायल होकर भी मैं तुमसे दूर जीने के लिये किसी वृद्धाश्रम की शरण भी नहीं ले सकता क्योंकि हर कण में मैं हूँ और मैं अपने आप से अलग होकर कहीं नहीं जा सकता हूँ ।
बार-बार जातीय, साम्प्रदायिक और ओछी राजनीति के कीचड़ से तर बतर तमाम राजनैतिक दलों की विकृत मानसिकता के परिचायक विघटनकारी आंदोलन क्या यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं है कि तुम लोग भौगोलिक दृष्टि से भले ही भारतीय हों किन्तु तुम ह्रदय, मानसिकता और धर्म से भारतीय कदापि नहीं रह गये हैं ? तुम शान्ति, ज्ञान और संस्कृति के वैश्विक गुरू भारत देश की पावन भूमि के सम्मानित नागरिक न होकर आज एक जंगली व्यवस्था में अपने-अपने स्वार्थ की दुकानें खोलकर बैठे हुये भारतीयता का शव-विच्छेदन में अपना अपना पराक्रम सिद्ध करने की गला काट प्रतियोगिता में व्यस्त कुटिल और भ्रष्ट व्यापारीगण मात्र हो।
जातियों, वर्गों, संप्रदायों और स्थानीय सीमाओं में बंटे तुम सब मात्र हिन्दू – मुसलमान – सिख या ईसाई मात्र हो। तुम मात्र उच्च जाति-पिछड़ी या दलित जाति हो, तुम मात्र मराठी मानुस, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, उत्तर या दक्षिण भारतीय हो, तुम मात्र आरक्षित अथवा अनारक्षित हो लेकिन तुम भारतीय नहीं हो। तुम अपने-अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिये मेरे बदन की बोटी बोटी नोच सकते हो, मेरी पसली-पसली निकाल सकते हो, मेरी शिराओं से एक-एक बूंद लहू निचोड़ सकते हो। तुम चिल्ला-चिल्ला कर सारी दुनिया में केवल ढोंग मात्र कर सकते हो कि तुम सब भारतीय हो- भारत तुम्हारा देश है। मैं मानता हूँ पुत्रों कि मेरी भौगोलिक सीमाओं में जन्म लेने के कारण दुनिया तुम्हें भारतीय समझती है लेकिन देश केवल एक टुकड़ा भूखंड भर नहीं होता, देश सिर्फ़ किसी झंडे का नाम नहीं है, देश किसी कागज़ पर चमकती हुई किसी मोहर का नाम नहीं है। मेरे पुत्र, देश आस्था का नाम है, देश प्रेम का नाम है और देश बलिदान का नाम है।
गला फाड़-फाड़ कर ‘भारत हमारा देश है’ के नारे लगाने वालों, अगली बार ऐसा कोई भी नारा उछालने से पूर्व एक क्षण के लिये यह अवश्य सोचना कि भारतवर्ष तुम्हारा है लेकिन भारत का कौन है? मैंने तुम्हें सब कुछ दिया लेकिन बदले में तुमने मुझे उखड़े हुये रेलवे ट्रैक्स, खुदी हुई सड़कें, जलते हुये घर और दुकानें, मेरे ही कमज़ोर बच्चों की खून से लथपथ लाशें और मेरी ही अबला बच्चियों की लुटी हुई अस्मतों के अतिरिक्त कभी कुछ नहीं दिया। तुमने अपने ही संविधान की अस्मिता को बीच चौराहों पर टके के भाव बेच दिया। अब तुम किस आधार पर अपने को भारतीय कहते हो? एक बार दर्पण के सामने खडे़ होकर अपने आप को निहारना। मेरा दावा है कि तुम अपने आप से भी आँख नहीं मिला सकोगे। तुम्हें समझ आ जायेगा कि तुम क्रूर व्यापारी हो, अवसरवादी हो, भ्रष्टाचारी हो, तुम सब कुछ हो लेकिन भारतीय कदापि नहीं हो।
आज मैं जितना भी ज़िदां हूँ तो वह केवल अपनी जान की परवाह न कर मेरे लिये हँस-हँस कर मृत्यु को गले लगाने वाले वीर सिपाहियों के कारण हूँ। मेरा दिल अभी भी धड़क रहा है तो केवल इसलिए कि आज भी किसी गाँव में, किसी कस्बे में, किसी शहर में कोई अबोध बच्चा तिरंगे को सीने से चिपकाये अपनी तोतली भाषा में ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा’ गाता फिर रहा है।मेरी आँखों में अगर आज भी कोई स्वप्न करवट ले रहा है तो वह केवल इस लिये कि मेरा कोई योग्य पुत्र अपना सब कुछ त्याग कर मेरा प्रतिनिधि बन कर आज न केवल इस देश के अंदर बल्कि सारी दुनिया में मेरे नाम का परचम फहरा रहा है।
मैं जिंदा रहूँगा तभी तुम जीवित रहोगे, यह सत्य तुम जितनी जल्दी समझ लो, तुम्हारे और मेरे लिये उतना ही अच्छा है। मैंने बहुत कुछ खोया है लेकिन मेरी यह उम्मीद अभी भी मेरे पास है कि तुम्हारे अंदर कहीं गहराई में आज भी एक भारतीय मौजूद है और एक न एक दिन वह बाहर निकल कर मेरे सीने से लिपट जायेगा।
तुम्हारा पिता
भारतवर्ष ।